Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 392
________________ अनेकान्त-स्थावादमीमांसा ३५९ का उत्पाद नहीं है । इस प्रकार स्वकी अपेक्षा उत्पाद एक होकर भी उसमें परकी अपेक्षा अनन्तरूपता घटल हो जाती है । यह एक उदाहरण है । परसे भेद दिखलानेकी अपेक्षा इस प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये | इस प्रकार लोकमें जितने भी सद्भावरूप पदार्थ हैं उनमेंसे प्रत्येक कैसे अनेकान्तस्वरूप हैं इसका सक्षेप में ऊहापोह किया । ६ स्याद्वाद और अनेकान्त अब अनेकान्तस्वरूप वस्तुका वचन मुखसे विचार करते हैं । अनेकान्तस्वरूप एक ही वस्तुका शब्दों द्वारा कथन दो प्रकारसे होता हैएक क्रमिकरूपसे और दूसरा यौगपद्यरूपसे । इनके अतिरिक्त कथनका तीसरा कोई प्रकार नहीं है । जब अस्तित्त्व आदि अनेक धर्म कालादिकी. अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूपसे विवक्षित होते हैं तब एक शब्दमें अनेक धर्मोके प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे उनका क्रमसे प्रतिपादन किया जाता है । इसीका नाम विकलादेश है । परन्तु जब वे ही अस्तित्वादि धर्म कालादिकी अपेक्षा अभेदरूपसे विवक्षित होते हैं तब एक ही शब्द द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मो का अखण्डरूपसे युगपत् कथन हो जाता है । इसीका नाम सकलादेश है । विकलादेश नयरूप है और सकलादेश प्रमाणरूप है। कहा भी है- विकलादेश नयाधीन है और सकलादेश प्रमाणाधीन है । ७ सकलादेशको अपेक्षा ऊहापोह जिस समय एक वस्तु अखण्डरूपसे विवक्षित होती है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मोकी अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पूरीकी पूरी एक शब्द द्वारा कही जाती है। इसीका नाम सकलादेश है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयसे सभी धर्मों में अभेदवृत्ति घटित हो जानेसे अभेद है तथा पर्यायार्थिक नयसे प्रत्येक धर्ममें दूसरे धर्मोसे भेद होने पर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है। जिसे स्याद्वाद कहते है उसमें इस दृष्टिसे प्रत्येक भग समग्र वस्तुको कहनेवाला माना जाता है इसीको आगे सप्तभंगीके द्वारा स्पष्ट करते हैं ८. सप्तभंगीका स्वरूप और उसमें प्रत्येक भंगकी सार्थकता - सप्तभंगी कहने से इसके अन्तर्गत सात भंगोका बोध होता है। वे हैं(१) स्यात् है ही जोव, (२) स्यात् नहीं ही है जीव, (३) स्यात् अवक्तव्य ही है जीव, (४) स्यात है और नहीं है जीव, (५) स्वात् है और अवक्तव्य

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