Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 387
________________ ३१४ 'जैनसल्वमीमांसा अनियत गुणपर्यायपनेको प्राप्त होनेसे परसमय अर्थात् परचरित हो रहा है। किन्तु जब वह अनादि मोहोदयके उदयका अनुसरण करनेवाली परिणतिसे वियुक्त होता हुआ शुद्ध उपयोगवाला होता है तभी अपने ज्ञानदर्शनस्वभावमें स्थित होनेके कारण स्वसमय अर्थात् स्वचरित होता है। स्वभावकी आराधना कहो या मोक्षमार्ग कहो दोनोंका अर्थ एक ही है। तदनुसार उक्त कथनका यह अभिप्राय है कि एकमात्र स्वभावकी आराधना करनेसे ही जीवनमें मोक्षमार्गकी प्रसिद्धि होती है। अतएव स्वभाव उपादेय है और जोबादि नौ पदार्थस्वरूप परभाव हेय हैं ऐसा समझकर सदा स्वभावपर अपनी दृष्टि स्थिर रखनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये। चित्तकी अस्थिरतावश कदाचित् रागादिरूप विकल्प उत्पन्न हों तो उन्हें अनुपादेय अर्थात् अहितकारी समझकर स्वभावके आलम्बन द्वारा निवृत्त होनेका सतत प्रयत्न (पुरुषार्थ) करते रहना चाहिए। रागादिभावोंका अवलम्बनकर प्रवृत्ति करना उपादेय नहीं है ऐसी दृढप्रतीतिके साथ जो मोक्षमार्गपर आरूढ होता है वही समस्त औपाधिकभावोंसे निवृत्त होकर मोक्षका अधिकारी होता है। प्रकृतमें निश्चयनयके आश्रय करनेका और व्यवहारनअके आश्रय छोड़नेका यही तात्पर्य है। इस प्रकार उक्त प्रमाणोके प्रकाशमें हम देखते है कि मोक्षमार्गमें एकमात्र निश्चयनयको ही आश्रय करनेयोग्य बतलाया गया है, व्यवहारनयको नहीं। फिर भी कतिपय व्यवहाराभासी जन इसे एकान्त कहकर परमार्थमार्गके विरोधमे प्रचार करते रहते हैं उनका ऐसा करना कैसे आगमविरुद्ध है इसे स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे सर्वप्रथम यहाँ अनेकान्त क्या है इसका निर्णय करते है। साथ ही इस मोमासामे यह भी स्पष्ट करेंगे कि जैनदर्शनमें अनेकान्त किस दृष्टिसे स्वीकार किया गया है और किस प्रकारकी प्रवृत्तिके लिए कौन-सो दृष्टि अपनाना श्रेयस्कर है। तत्त्वनिर्णयपूर्वक मोक्षमार्गमें उपयुक्त होनेका मार्ग भी यही है। ४. अनेकान्तका स्वल्पनिर्देश ____ अनेकान्त शब्द अनेक और अन्त इन दो शब्दोंके मेलसे बना है। उसका सामान्य अर्थ है-अनेके अन्ताः धर्माः यस्यासौ अनेकान्तः। जिसमें

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