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अनेकान्त स्यावादमीमांसा निर्देश है। वस्तुतः देखा जाय तो परको परमार्थसे आत्मकार्य में साधक मानना यह भी अध्यक्सानभाव है। ऐसे पराश्रित जितने प्रकारके भाव होते हैं, अध्ययवसानभाव भी उतने ही प्रकारके होते हैं। ये आत्मासे आत्माको विलग करके पर पदार्थोंसे आत्माको युक्त करते हैं, इसलिये जिनेन्द्रदेवने ऐसे सभी प्रकारके अध्यवसानभावोंको छोड़नेका उपदेश दिया है। ऐसा होने पर ही संसारी प्राणी आत्मकार्यके सन्मुख होकर
आत्मामें स्थिति करनेमे समर्थ हो सकता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ___ मोक्षमार्गकी सिद्धि निश्चयनयस्वरूप उपयोग परिणामके होने पर ही होती है इस बातका स्पष्ट निर्देश करते हुए नयचक्रमें भी कहा है
णिच्छयदो खलु मोक्खो बंधो ववहारचारिणो अम्हा। ___ तम्हा णिन्वुदिकामो ववहारं चयदु तिविहेण ॥३८२॥
यत निश्चयनयस्वरूप होनेसे मोक्ष होता है और व्यवहारचारी अर्थात् पराश्रित प्रवृत्ति करनेवालेके बन्ध होता है, अत: मोक्षप्राप्तिकी रुचि जिसके चित्तमें जागृत हुई है उमे मन, वचन, और कायसे व्यवहारका त्यागकर देना चाहिये अर्थात् सब प्रकारके अध्यवसानभावोंसे मुक्त हो जाना चाहिये। तथा ज्ञानीके चतुर्थादिगुणस्थानोंमें जो शुभाचारसम्बन्धी पराश्रित विकल्प होते हैं उनमें भी हेयबुद्धि कर लेनी चाहिये ॥१८१॥ ___ शका-ज्ञानीके शुभाचारमें हेयबुद्धि होती ही है । ऐसी अवस्थामें उसे शुभाचारमे हेयबुद्धि कर लेनी चाहिये ऐसा क्यो कहा? ___ समाधान-यह सच है कि ज्ञानीके शुभाचारमें स्वय हेयबुद्धि होती ही है, क्योकि निश्चयनयके समान यदि उसमे उपादेय बुद्धि हो जाय तो उसे ज्ञानी कहना ही नही बनता। फिर भी समझानेकी दष्टिसे ऐसा कहा जाता है कि ज्ञानीको शुभाचारमें हेयबुद्धि कर लेनी चाहिये । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वहाँ पुनः कहा है
मोत्तूण बहिबिसयं आदा वि बट्टदे काउं ।
तझ्या संवर णिज्जर मोक्खो विय होह साहुस्स ।।३८३॥ जब साधु (ज्ञानी) बाह्य विषयको छोड़कर आत्मामें स्थित होता है सब उसे संवर, निर्जरा और मोक्षकी प्राप्ति होती है ।।३८३।। ३. तर्कपूर्ण शैलीमें व्यवहारका निषेष
निश्चयनयके आश्रयसे हो धर्म होता है, व्यवहारनयके आश्रयसे