Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा ३२५ उपासना नहीं करता, वैसे ही संसार रोगसे पीड़ित व्यक्ति मुक्त होने में परम साधक सामग्रीस्वरूप अपने ध्येयके प्रति निरन्तर जागरूक रहता है । वह संसार और संसारको कारणभूत सामग्रीको हितकारी या उपा देय मान कर उनकी उपासना नहीं करता । कहीं-कहीं ऐसा कहा गया है कि अशुभका निरोध करनेके लिये यह जीव शुभ प्रवृत्ति करता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि जो शुभ और अशुभ दोनों प्रकारकी परिणतियोंको समानरूपसे संसारका कारण जानकर उक्त भेद नहीं करता और निरन्तर स्वभाव प्राप्तिके प्रति सन्नद्ध रहता है वही क्रमशः मोक्षका अधिकारी होता है । १८ व्यवहारनय इस प्रकार उक्त विधिसे निश्चयनयका स्वरूप स्पष्ट होने पर अब व्यवहार नयकी अपेक्षा विचार करते हैं। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि आध्यात्ममें व्यवहार नयको अभूतार्थं कहा है। वहाँ अभूतार्थका क्या अर्थ स्वोकृत है यह भी हम पहले बतला आये हैं । अब उसी आधारसे यहाँ पर इस नयका और उसके भेदोंका सांगोपांग विचार करते हैं । प्रकृतमें व्यवहार यह यौगिक शब्द है । यह 'वि' और 'अब' उपसर्गपूर्वक 'हृ धातुसे निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है कि भेद करके या समारोप करके मूल वस्तुका अपहरण करना । एक तो यह वस्तुके किसी एक धर्मको मुख्यकर वस्तुको जाननेरूप ज्ञानपरिणाम है और दूसरे पराश्रितपनेसे वस्तुको जाननेरूप ज्ञानपरिणाम है । इसलिये जितना भी व्यवहारनय है वह उदाहरणसहित विशेषणविशेष्यरूप ही होता है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पंचाध्यायीमें कहा भी है सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूपः स्यात् व्यवहारापरनामा पर्यायार्थी नयो न तुष्यार्थः ।। १-५९६ ।। उदाहरणसहित विशेषण - विशेष्यरूप जितना भी नय है वह व्यवहार नामक पर्यायार्थिक नय है, वह द्रव्यार्थिक नय नहीं है । पंचाध्यायीमें इसी विषयको स्पष्ट करते हुए लिखा है पर्यायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थी यस्मादि सर्वोऽप्युपचारमात्रः स्यात् ।। १-५२१ ॥ व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थः । स यथा गुण-गुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ॥ १-५२२ ।। साधारण गुण इति यदि वासाधारण: सतस्तस्य । भवति विधी हि यथा व्यवहारनयस्तथा श्रेयान् ॥ १-५२३ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456