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निश्चय-व्यवहारमीमांसा
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उपासना नहीं करता, वैसे ही संसार रोगसे पीड़ित व्यक्ति मुक्त होने में परम साधक सामग्रीस्वरूप अपने ध्येयके प्रति निरन्तर जागरूक रहता है । वह संसार और संसारको कारणभूत सामग्रीको हितकारी या उपा देय मान कर उनकी उपासना नहीं करता ।
कहीं-कहीं ऐसा कहा गया है कि अशुभका निरोध करनेके लिये यह जीव शुभ प्रवृत्ति करता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि जो शुभ और अशुभ दोनों प्रकारकी परिणतियोंको समानरूपसे संसारका कारण जानकर उक्त भेद नहीं करता और निरन्तर स्वभाव प्राप्तिके प्रति सन्नद्ध रहता है वही क्रमशः मोक्षका अधिकारी होता है ।
१८ व्यवहारनय
इस प्रकार उक्त विधिसे निश्चयनयका स्वरूप स्पष्ट होने पर अब व्यवहार नयकी अपेक्षा विचार करते हैं।
यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि आध्यात्ममें व्यवहार नयको अभूतार्थं कहा है। वहाँ अभूतार्थका क्या अर्थ स्वोकृत है यह भी हम पहले बतला आये हैं । अब उसी आधारसे यहाँ पर इस नयका और उसके भेदोंका सांगोपांग विचार करते हैं । प्रकृतमें व्यवहार यह यौगिक शब्द है । यह 'वि' और 'अब' उपसर्गपूर्वक 'हृ धातुसे निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है कि भेद करके या समारोप करके मूल वस्तुका अपहरण करना । एक तो यह वस्तुके किसी एक धर्मको मुख्यकर वस्तुको जाननेरूप ज्ञानपरिणाम है और दूसरे पराश्रितपनेसे वस्तुको जाननेरूप ज्ञानपरिणाम है । इसलिये जितना भी व्यवहारनय है वह उदाहरणसहित विशेषणविशेष्यरूप ही होता है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पंचाध्यायीमें कहा भी है
सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूपः स्यात्
व्यवहारापरनामा पर्यायार्थी नयो न तुष्यार्थः ।। १-५९६ ।। उदाहरणसहित विशेषण - विशेष्यरूप जितना भी नय है वह व्यवहार नामक पर्यायार्थिक नय है, वह द्रव्यार्थिक नय नहीं है । पंचाध्यायीमें इसी विषयको स्पष्ट करते हुए लिखा है
पर्यायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थी यस्मादि सर्वोऽप्युपचारमात्रः स्यात् ।। १-५२१ ॥ व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थः ।
स यथा गुण-गुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ॥ १-५२२ ।। साधारण गुण इति यदि वासाधारण: सतस्तस्य । भवति विधी हि यथा व्यवहारनयस्तथा श्रेयान् ॥ १-५२३ ॥