Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 356
________________ निश्चय व्यवहारमीमांसा ३२३ इस प्रकार स्व-परका विवेक प्राप्त होनेपर जो पर है उसमें सदभूत क्या है और असद्भुत क्या है और जो सद्भूत हैं वह क्यों सदभूत हैं और जो असद्भुत है वह क्यों असद्भुत है ऐसी जिज्ञासाके समाधानस्वरूप समयसार गाथा ६ और ७ तथा उसको मात्मख्याति टीकामें जो प्ररूपणा की गई है उसका स्पष्टरूपसे निर्देश हम पहले ही कर आये हैं। फिर भी पूरे प्रकरणपर पंचाध्यायो आदि अन्य भागमोंके प्रकाशमें हम पुनः सांगोपांग विचार करेंगे । १७ निश्चयनय एक है पंचाध्यायीमें निश्चनयके भेदोंका निषेध करते हुए लिखा है मुखद्रव्याथिक इति स्यादेकः शुद्धनिश्चयो नाम । अपरोऽश दद्रव्याथिक इति तवशुद्धनिश्चयो नाम ॥१-६६०॥ . इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते । स हि मिथ्यादृष्टिः स्यात् सर्वज्ञावमानतो नियमात् ।।१-६६१।। शुद्धनिश्चनय संज्ञक एक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है और अशुद्धनिश्चयसंज्ञक एक अशुद्ध द्राथिकनय है ।। १-६६ ॥ इत्यादिरूपसे जिसके मतमें निश्चयनयके बहतसे भेद कल्पित किये गये है वह नियमसे सर्वज्ञका तिरस्कार करनेवाला होनेसे मिथ्यादृष्टि है।॥१-६६१।। बात यह है कि वस्तु स्वभावकी दृष्टिसे उसका स्वरूप एक ही प्रकार का है। वस्तुके त्रिकाली स्वरूपमें न तो उसका अपेक्षा भेदसे मेद करना सम्भव है और न ही उसे शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका हो कहा जा सकता है । इस नयके कथनमें तीन विशेषतायें होती है। एक तो वह अमेदग्राही होता है। दूसरे वह अनन्त धोको गौण कर धर्मीकी मुख्यतासे प्रवृत्त होता है और तीसरे वह विशेषण रहित होता है। अत इस दृष्टिसे निश्चय नयके भेद करना आगम बाह्य है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यद्यपि अन्यत्र निश्चनयके अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु वहाँ पर वस्तुके परनिरपेक्ष त्रिकाली स्वरूपको गौण करके ही ये भेद किये गये हैं, इसलिये त्रिकाली वस्तुस्वरूपको ध्यानमें लेने पर उन सबको निश्चयनय कहना आगम बाह्य हो जाता है यह स्पष्ट ही है। शंका-जब कि चरणानुयोगके अनुसार भी ध्येय रूपसे शुद्ध-बुद्ध आत्माको ही स्वीकारा जाता है ऐसी अवस्थामें निश्चयनयके दो भेदोंका कथन क्यों दृष्टिगोचर होता है ?

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