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जैनतत्त्वमीमांसा मोक्खपहे अप्पाणं ठवे हि तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदब्वेसु ।।४१२।। भव्य जीवको लक्ष्यकर आचार्यदेव कहते हैं कि तूं मोक्षमार्गमें अपने आत्माको स्थापित कर, उसीका ध्यान कर, उसीका अनुभव कर शौर उसीमें निरन्तर रमण कर, अन्य द्रव्योंमे इष्टानिय्ट बुद्धिद्वारा रममाण मत हो ।।४१२॥ ___ अभेद दृष्टिसे स्वभावभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्रस्वरूप आत्मा अखण्ड और एक ही है। इसका अर्थ है कि प्रज्ञाके बलसे जो तत्स्वरूप अपने आत्मामे रममाण होता है वही तत्स्वरूप होनेका अधिकारी होता है। परमार्थसे ऐसा ही आत्मा साध्य है और ऐसा ही आत्मा साधन है। ये दो नहीं है । इस रूपसे वर्तनेवाले जीवके पर द्रव्यस्वरूप जो रागद्वेषादि हैं उनमें अणुमात्र भी प्रवृत्ति नहीं होती। इतना ही नहीं, अन्य द्रव्योंको जाननेरूप प्रवृत्तिसे भी वह मुक्त रहता है। परम ध्यानरूप होनेका यदि कोई उपाय है तो वह एकमात्र यही है और इसीलिये ही इसे आगममें निविकल्प समाधि शब्द द्वाग अभिहित किया गया है। अध्यात्मकी दृष्टिसे आगममें समाधिके दो ही भेद हैं-सविकल्प समाधि और निर्विकल्प समाधि । सविकल्प समाधि आत्माके लक्ष्यसे होनेपर भो उसमें विकल्पकी चरितार्थता रहती है। परन्तु निर्विकल्प समाधि पर निरपेक्ष ज्ञानभावसे आत्माको अनुभवनेपर ही प्राप्त होती है । मोक्ष प्राप्तिकी दृष्टिसे आगे बढ़नेका यदि कोई मार्ग है तो वह निर्विकल्प समाधि ही है। नयचक्र आदि जिनवाणीमें इसीलिये ही धर्म्यध्यानको सविकल्प और निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका स्वीकार किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि निविकल्प आत्माकी प्राप्तिके लिये निर्विकल्प ध्यानका आलम्बनभूत स्वात्मा निर्विकल्प ही स्वीकार किया गया है। इसोको कतिपय आचार्योंने कारण परमात्मा भो कहा है, क्योंकि बीजरूपमें वह ऐसी शक्ति सम्पन्न होता है जो उत्तर कालमें स्वय परमात्मा बन जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ७२ की आत्मख्याति टीकामें इसीलिये ही उसे भगवान् आत्मा शब्दद्वारा सम्बोधित किया है। यत निर्विकल्प समाधिमें विकल्पके लिये अणुमात्र भी स्थान नहीं है, इसलिये विकल्पकी उत्पत्तिमे जितनी भी बाह्याभ्यन्तर सामग्रो स्वीकार की गई है वह पर हो जाती है । न तो उसे निर्विकल्प आत्मामें किसी भी अपेक्षासे स्थान प्राप्त है और न ही उसके आलम्बनसे निर्विकल्प समाधिरूपसे परिणत स्वात्मामें ही उसे किसी प्रकारका स्थान प्राप्त है।