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बाह्य कारण मीमांसा जिनागममें पर्याय शब्दद्वारा व्यवहत किया गया है। बह पर्याय दो प्रकारकी है-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । इन दोनों प्रकारको पर्यायोंका निर्देश करते हुए नियमसारमें आचार्य कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं
पज्जायो दुवियप्पो सपरावेक्लो य णिरवेक्खो ॥१४॥ पर्याय दो प्रकार की है-स्वपरसापेक्ष और निरपेक्ष अर्थात् परनिरपेक्ष या स्वसापेक्ष ॥१४॥
इस सत्रगाथामें विभाव पर्यायको स्व-परसापेक्ष और स्वभावपर्यायको निरपेक्ष अर्यात् परनिरपेक्ष या स्वसापेक्ष कहा गया है। इसका मतलब है कि प्रति समय विभावरूप जो भी पर्याय होती है उसके होते समय नियमसे उपाधिरूपसे अलग-अलग बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता पाई जाती है, किन्तु स्वभाव पर्यायके होनेमें बाह्य सामग्रीके रहते हुए भी केवल आभ्यन्तर सामग्री ही प्रयोजनीय मानी गई है, इसलिये यहाँ प्रत्येक कार्यको उत्पत्तिमें सामग्रीरूपसे कारणका विचार करना आवश्यक है। उसमें भी आभ्यन्तर सामग्रीका विचार तो हम आगे निश्चय उपादान कारण मीमांसा इस प्रकरणमें करेंगे। यहाँ मात्र बाह्य कारणोंका विचार करते हुए सर्व प्रथम उसके लक्षणपर दृष्टिपात कर लेना चाहते हैं । कारणका सामान्य लक्षण हैयद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत् तस्य कारणमिति । ध पु० १२ पृ० २८९ ।
जो जिसके होनेपर ही होता है. नही होनेपर नहीं होता वह उसका कारण करलाता है।
इसका अर्थ है कि कारण और कार्य में अविनाभाव सम्बन्ध नियमसे होता है तभी उनमें कार्य-कारणपना घटित होता है। चाहे बाह्य साधन हो और चाहे अन्तरंग साधन हो। कार्यके साथ इन दोनोंका अविना- . भावसम्बन्ध अवश्य पाया जाता है। सामान्य कारणका यह लक्षण दोनों प्रकारके कारणोंमें घटित होता है । ३. बाह्य कारणका लक्षण
आगममें जिस प्रकार निश्चय उपादान कारणका लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है उस प्रकार बाह्य कारणका स्वतन्त्र लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होता। इतना अवश्य है कि कहापोहके द्वारा इसके स्वरूपपर प्रकाश पड़ जाता है । तत्त्वार्थ श्लोकबातिकमें शंका-समाधान करते हुए लिखा है
सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं यत् स्यात्, एकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् ?