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जैनतस्वमीमांसा पर इस समस्याका समाधान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि नैयायिक दर्शन जिस प्रकार अन्य निमित्तोंको स्वीकार करके भी कार्यका कर्ता ईश्वरको मानता है, अन्य निमित्तोंको नही, उसी प्रकार जैनदर्शन अन्य निमित्तोंको स्वीकार करके भी कार्यका कर्ता स्वयं अपनेको मानता है, अन्य निमित्तोंको नहीं। इसलिए 'यदि अन्य निमित्तोंको इस रूपमे नही माना जाता है तो उन्हें स्वीकार करनेसे क्या लाभ है' यह प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि दोनों दर्शनामें अन्य निमित्तोंकी स्थिति लगभग एक समान है । जो मतभेद है वह कर्ताको लेकर ही है। नैयायिकदर्शन कारण द्रव्यको स्वयं अपरिणामी मानता है, इसलिए उसे समवायीकरणको गौण करके ईश्वररूप कर्ताकी कल्पना करनी पडी। किन्तु जैनदर्शनके अनुसार प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणामी नित्य है, इसलिए इस दर्शनमें नित्य होकर भी परिणमनशील होनेके कारण वह स्वयं कर्ता है यह स्वीकार किया गया है। इन दोनों दर्शनोमें कर्ताका अलग-अलग लक्षण करनेका भी यही कारण है। यह वस्तुस्थिति है जिसे हृदयङ्गम कर लेनेसे जैनदर्शनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप लोकको अकृत्रिम क्यो कहा गया है यह समझमे आ जाता है।
___ इस प्रकार जो समस्त लोकको अकृत्रिम अर्थात् अन्यका कार्य न समझकर अपने विकल्पों द्वारा स्वय अन्यका कर्ता नही बनता और न अन्य द्रव्योंको अपना कर्ता बनाता है। किन्तु दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप अपने आत्मस्वभावमें स्थित रहता है वह स्वसमय है और इसके विपरीत जो अपने अज्ञानभावको निमित्तकर, सचित हुए पद्गल कर्मोंका कर्ता बनकर तथा उनको निमित्त कर उत्पन्न होनेवाली गग-द्वेष और नरक-नारकादि विविध प्रकारकी पर्यायको आत्मस्वरूप मानकर उनमे रममाण होता है वह परसमय है यह सिद्ध होता है।
यहाँ यह तो है कि ये राग-द्वेष और नर-नारकादि पर्यायें पुद्गलकर्मोका कार्य नही है। परन्तु आत्मामें इनकी उत्पत्तिका मूल कारण अज्ञानभाव है, इसलिए यह आत्मा जब तक अज्ञानी हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है तभी तक वह इनका कर्ता होता है। किन्तु ज्ञानी होने पर उसके पुद्गल कर्मोको निमित्त कर उत्पन्न होनेवाली इन पर्यायोंमें आत्मबुद्धिका सुतरां त्याग हो जाता है, इसलिए उस समय इनके कदाचित् होने पर भी निश्चयसे वह इनका कर्ता नहीं होता।