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जेनतत्त्वमीमांसा इस प्रकार हम देखते है कि आगममें सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके बाह्य निमित्तरूपमें जिन बिम्बदर्शन आदि बाह्य साधनोंका निर्देश दृष्टिगोचर होता है उनका सम्यग्दर्शन प्राप्तिके कालकी अपेक्षा निर्देश नहीं किया गया है। किन्तु विषय-कषायके विकल्पसे निवृत्त होकर अपने स्वरूपको लक्ष्यमे लेनेको अपेक्षा ही उनका निर्देश किया गया है ।
शंका-जिन बिम्बदर्शन आदि सम्यग्दर्शनके कालमें भले ही निमित्तव्यवहारको प्राप्त नहीं हों. दर्शनमोहनीयके उपशम आदि हुए बिना जब सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता तब उसे कर्मकृत माननेमें क्या आपत्ति है । पञ्चास्तिकाय गाथा ५८में कहा भी है
कम्मेण विणा उदय जोवस्स ण विज्जद उवसम वा ।
खडय खओवसमिय तम्हा भाव दु कम्मकद ॥ ५८ ॥ कर्मके बिना जीवके औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव नहीं होते, इसलिये ये भाव कर्मकृत है ।। ५८ ॥
समाधान-प्रकृतमे उदयमे उपशम, क्षय और क्षयोपशममें मौलिक अन्तर है । यहाँ उपशमसे अन्तरकरण उपशम लिया गया है। उपरितन स्थितिमें दर्शनमोहनीयको सत्ता भले ही बनी रहे. पर औपमिक सम्यग्दर्शनके अन्तमुहूतंप्रमाण स्थिति दर्शनमोहनीयके निषेकोसे सर्वथा शून्य रहती है और इसीलिए इस सम्यग्दर्शनको गोम्मटसार जीवकाण्डमें क्षायिक सम्यग्दर्शनके समान अत्यन्त निर्मल कहा गया है। क्षायिकसम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीयके अकर्मपर्यायरूप होनेपर ही होता है यह स्पष्ट ही है। अब रहा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन तो इस सम्यग्दर्शनके कालमें भी मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति उदयरूप नहीं दिखलाई देती हैं। इस प्रकार प्रकतमे उपशम, क्षय और क्षयोपशमके स्वरूपपर विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि करणानुयोगके अनुसार ये तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीयके अभावमे ही होते हैं। फिर भी प्रकृत मे इन्हे जो कर्मकृत कहा गया है सो यह ऐसा ही कहना है कि जैसे अमुक व्यक्तिके न रहने पर यह कहा जाय कि उसने यह काम कर दिया है। यहाँ जिस व्यक्तिको निमित्त कर वह काम बना है उसको तो गौण कर दिया गया है और जो व्यक्ति नहीं है उसको मुख्य कर यह कहा गया है कि अमुक व्यक्तिने यह काम कर दिया है। उसी प्रकार प्रकृतमें आत्माने स्वयं अपने ज्ञायक स्वभावके सन्मुख होकर अपना सम्यग्दर्शन उत्पन्न करनेरूप काम किया और कहा यह गया कि कर्मने