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जैनतत्त्वमीमांसा (८) एक तो वे महाशय षड्गुण हानि-वृद्धिरूप परिणमन मात्र अगुरुलघु गुणका मानते हैं और दूसरे वे उसे सर्वथा अनिमित्तक मानते हैं । किन्तु उनकी यह कथनी कितनी उपहासास्पद है यह इसीसे स्पष्ट है कि जिस नियमसार गाथा १४में पर्यायोंके स्व-परसापेक्ष और निरपेक्ष ये भेद किये हैं उसी नियमसारकी अगली गाथामें स्वपर-सापेक्ष और निरपेक्ष पर्यायोंसे उन्हे क्या विवक्षित है इसका भी संकेत कर दिया है। समग्रजिनागममे स्वभावपर्यायोंको परनिरपेक्ष रूपमे ही स्वीकार किया गया है। इस ओर वे ध्यान देते तो भी वे आगमविरुद्ध ऐसे भ्रामक कथनको करनेका साहस ही नहीं करते। दूसरे यदि वे जीवकाण्डकी ज्ञानमार्गणा पर दृष्टि डाल लेते तो वे आगमविरुद्ध यह लिखनेका भी साहस नहीं करते कि मात्र अगुरुलघु गुणका षड्गुण हानि-वृद्धिरूप परिणमन स्वप्रत्यय है। विशेष स्पष्टीकरण हम पहले ही कर आये है।
(९-१०) उन महाशयोका जो यह कहना है कि यद्यपि अन्तिम समाररूप पर्यायके अनन्तर मोक्षपर्याय अवश्य होती है, पर इसका कारण द्रव्य कर्मोंका अभाव ही है, अन्तिम पर्याय नहीं। वे अपने इस मतकी पुष्टिमें यह तर्क देते है कि पूर्व पर्याय विनष्ट होकर ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति होती है। सो उनका यह कहना भी केवल कपोलकल्पित कल्पना ही है। उन्हे कम-से-कम यह तो समझना चाहिये था कि यदि पर्यायका अभाव होकर कार्यको उत्पत्ति होती है, इसलिये पर्यायमें कारणता घटित नही होती तो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका सर्वथा अभाव होकर ही मोक्षकी उत्पत्ति होती है, ऐसी अवस्थामे इन तीनोंमे भी कारणता कैसे बन सकती है। जो कर्म वस्तुसे सर्वथा भिन्न है उसमें तो कारणता बन जाय और जो वस्तुके तादात्म्यरूप है उसमें कारणता नही बने यह मान्यता कैसी विडम्बनारूप है इसको स्वय वे जान सकते है जिन्हे आगमके अनुसार उपादान-उपादेयपनेका यत्किचित् भी ज्ञान है ।
दूसरी बात यह है कि आगममे मोक्षपर्यायको उत्पत्ति रत्नत्रयकी पूर्णतामे स्वीकार की गई है, संसार पर्याय रत्नत्रयके साथ है यह दूसरी बात है। यदि वे महाशय कहे कि संसार पर्यायके अन्तिम समयमें स्थित रत्नत्रय पर्यायका अभाव होकर ही मोक्षकी उत्पत्ति होती है इसलिये उसमें भी कारणता हम नही मानते तो उन्हे चाहिये कि वे सर्वज्ञ कथित आगमकी परम्पराके विरुद्ध स्वमत कल्पित स्वतन्त्र शास्त्र लिख डाले