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जैनतत्वमीमांसा हितु नहीं है। प्रत्युत इसके विपरीत स्थिति यह है कि निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिके पूर्व जितना भी व्रत, तप, यम, नियमरूप क्रियाकाण्ड होता है वह सब संसारको बढ़ानेवाला ही माना गया है, क्योंकि उसके द्रव्यान्तर स्वभाव होनेसे वह बन्धका ही हेतू है, मोक्षस्वरूप एकत्वकी प्राप्तिका हेतु नहीं । समयसारमें कहा भी है
वद-णिभमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कुव्वता । - परमट्ठबाहिरा जे णिवाण ते ण विदंति ॥ १५५३ ।। जो जीव व्रत, नियम, शील और तपको करते हुए भी परमार्थसे बाहिर हैं अर्थात् जानस्वरूप स्वात्माकी अनुभूतिसे वंचित हैं वे निर्वाणको • नहीं प्राप्त होते ॥१५३॥
इसकी आत्मख्याति टीकामे लिखा है
ज्ञानमेव मोक्षहेतुस्तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामन्तव्रतनियमशीलतप.. प्रभृतिशुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बन्धहेतु., तदभावे स्वयंज्ञानभूताना ज्ञानिना बहिर्वतनियमशीलतप प्रभृतिशुभकर्माभावेऽपि मोक्षसद्भावात् ।
ज्ञान ही मोक्षका हेतु है, क्योंकि ज्ञान (ज्ञानधाग) के अभावमे स्वयं अज्ञानभावको प्राप्त हुए अज्ञानियोके अन्तरंग व्रत, नियम, शील और तप इत्यादि शुभ कर्मोका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव रहता है। तथा अज्ञान ही बन्धका हेतु है, क्योंकि अज्ञानके अभावमें स्वय ज्ञानभावको प्राप्त हुए ज्ञानियोके बाह्य व्रत, नियम, शील और तप इत्यादि शुभ कर्मोका अभाव होनेपर भी मोक्षका सद्भाव है।
इस टीकासे कई तथ्योपर प्रकाश पड़ता है
(१) अज्ञानियोंके व्रत, नियम आदिके पूर्व जो अन्तरंग विशेषण दिया है उससे विदित होता है कि अज्ञानी जीव इन व्रत, नियम आदिको ही मोक्षका अन्तरग हेतु मानता है, इसलिये वह निरन्तर व्रताचरण आदि पर प्रमुखरूपसे जोर देता रहता है। उसे यह मालूम ही नही कि जो ज्ञानभावको प्राप्त होगा उसे बाह्य परिकरके रूपमे यथासम्भव ये व्रतादिक होते ही हैं। उसकी निरन्तर यह धारणा काम करती रहती है कि व्रताचरण करनेसे ही परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है। वह अनुसंगीको आवश्यक मानता रहता है। यही उसका अज्ञान है जिसके. रहते हुए वह मोक्षका अधिकारी नहीं हो पाता।
(२) ज्ञानीके व्रत, नियम आदिके पूर्व जो बाह्य विशेषण दिया है
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