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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
२५३ निश्चय उपादानकी उपयोगिता भी कार्य उत्पन्न करनेकी दृष्टिसे ही है, क्योंकि उसका ध्वंस होकर ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। कार्य होनेपर भी उपादान बना रहता है सो वह किसका ? विवक्षित कार्यका या अन्य किसीका ? यदि विवक्षित कार्यका कहा जाय तो इसका यह अर्थ हुमा कि अभी द्रव्य विवक्षित कार्यकी दृष्टिसे उपादानकी भूमिकामें ही आया है। उसके अव्यवहित उत्तर समयमें कार्य होगा। यदि वह अन्य किसीका उपादान है तो उसे विवक्षित कार्यका उपादान नहीं कहना चाहिये। यदि कहा जाय कि हम कार्य होनेके बाद भी निश्चय उपादान बना रहता है यह नहीं कह रहे हैं, किन्तु जो द्रव्य निश्चय उपादानकी भूमिकामें आकर अव्यवहित उत्तर समयमें विवक्षित कार्यको उत्पन्न करता है उसकी बात कह रहे हैं। तो इसपर हमारा इतना ही कहना है कि केबल त्रिकाली द्रव्य तो कार्यको उत्पन्न करता नही, किन्तु तीनों कालों में पूर्व-पूर्व पर्याय युक्त होकर हो द्रव्य उत्तर-उत्तर समयमें कार्यको उत्पन्न करता है । इसलिये विवक्षित कार्यकी अपेक्षा उसकी उपयोगिता वहीं समाप्त हो जाती है । आगम भी उपादान-उपादेय रूपसे इसी तथ्यकी प्ररूपणा करता है इसे नहीं भूलना चाहिये। जिससे स्वाध्याय प्रेमीको भ्रम हो या विपरीत परम्परा चले ऐसी प्ररूपणा किस काम की इसका विचार उन महाशयोंको ही करना चाहिये जो ऐसे भ्रमोत्पादक कथन करनेमे अपना द्रतिकर्तव्य समझते हैं।
(१४) द्रव्य पर्यायें दो प्रकारकी हैं-स्वभावपर्याय और विभाव पर्याय । स्वभाव पर्यायोंपर तो बद्धता और स्पष्टताका व्यवहार ही नही होता। विभाव पर्यायों पर बद्धता और स्पृष्टताका व्यवहार अवश्य किया जाता है, परन्तु परमार्थसे वे होती स्वयं अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही हैं। उन्हे पर पदार्थ उत्पन्न नहीं करते और न वे परमार्थसे परपदार्थोंसे बद्ध और स्पृष्ट ही हैं। यदि उन्हे पर पदार्थोंसे बद्ध और स्पृष्ट परमार्थसे मान लिया जाय तो उनमें एकत्व प्राप्त हो जाय । किन्तु दो पदार्थ कभी भी बद्ध और स्पृष्ट होकर एक नहीं होते, इसलिये सभी पर्यायोंको परमार्थसे अबद और अस्पृष्ट ही मानना चाहिये।
शंका-समयसार गाथा १४ में आत्माको अबद्ध-अस्पष्ट निश्चयनयसे अवश्य कहा गया है, क्योंकि यह नय मात्र स्वारमाधित वस्तुका विवेचन करता है, पराश्रित वस्तुका विवेचन नहीं करता, जब कि पराश्रित