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निश्चय-व्यवहारमीमांसा समाधान-स्वभाव निमग्न होने पर इस जीवके किसी प्रकारका भी विकल्प नहीं होता इसमें सन्देह नहीं। परन्तु सविकल्प निश्चयनय और व्यवहारनयमें विषयको अपेक्षा स्वाश्रित और पराश्रितपनेका मेव है। सविकल्प निश्चय नय जहाँ स्वाश्रित विकल्प है वहाँ व्यवहारनय पराश्रित विकल्प है। इसलिये आध्यात्ममें पराश्रित विकल्पको सर्वपा हेय बसला कर उससे परावृत होनेका उपदेश दिया गया है। अब रही स्वाचित विकल्पकी बात सो निर्विकल्प निश्चयनयस्वरूप होनेके पूर्व ऐसे विकल्पका होना अवश्यंभावी है, क्योंकि निरन्तर ऐसी भावना होने पर ही जोव निर्विकल्प होता है। अतः व्यवहार नयकी तरह पराश्रित कह कर इसका निषेध नहीं किया गया है। फिर भी कोई ऐसे विकल्पको परमार्थकी प्राप्ति समझ ले तो उसका भी अध्यात्ममें निषेध ही किया गया है। इस तथ्यको विशेष रूपसे समझनेके लिये पंचास्तिकाय गाथा १७२ को समय टीका पर दृष्टिपात कोजिये। ११ भूतार्थ और अभूतार्थ पदोंका अर्थ
भूतार्थ और अभूतार्थके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए समयसार परमागममें लिखा है
ववहारोऽभूयत्यो भूयत्यो देसिदो दु सुद्धणओ ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥ ११ ॥ आगममे व्यवहारनयको अभूतार्थ और निश्चयनयको भूतार्थ कहा है। भूतार्थका आश्रय ( अनुभव ) करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि है ।।११।।
इस गाथाकी आत्मख्याति टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थ प्रद्योतते । शुद्ध नय एक एव भूतार्थत्वाद् भूतार्थ प्रद्योतते ।
समस्त व्यवहारनय नियमसे अभृतार्थ है, वह अभूत अर्थको ही द्योतित करता है। तथा शुद्धनय एकमात्र भूतार्थ है, वह भूत अर्थको ही घोतित करता है।
आगे इसकी आत्मख्याति टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रने भूतार्थ और अभतार्थ शब्दोंके अर्थको स्पष्ट करते हए जो कुछ लिपिबद्ध किया है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार कीचड़से युक्त अवस्थामें जलका सहज स्वरूप तिरोहित रहता है, इसलिये ऐसी अवस्था युक्त जलको