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निश्वय-व्यवहारमीमांसा
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है | और स्वभाव त्रिकाली होता है, इसलिए उसका यह स्वरूप फलित होता है कि जो स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि अनन्त हैं, निरन्तर उद्योतरूप है और विशदज्योति है उसका नाम ज्ञायक है। विचार कर देखा जाय तो महां ज्ञायकभाव स्पष्ट करनेके लिए जिसने विशेषण दिये गये हैं वे सब सार्थक हैं । सर्वप्रथम उसे स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि अनन्त कहा है सो किसी भी वस्तुका त्रिकाली स्वभाव किसी बाह्याभ्यन्तर उपाधिको निमित्त कर उत्पन्न नहीं होता, इसलिए तो वह स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त कहा गया है । जब वह अनादि-अनन्त है ऐसी अवस्थामें कर्मसंयुकपनेको निमित्त कर जो मलिनता आती है ऐसी मलिनता भी संभव नहीं है, अतः उसे नित्य उद्योत्तरूप कहा गया है । यतः वह सब प्रकारको मलिनतासे मुक्त है अतः उसका विशदज्योति स्वरूप होना स्वाभाविक है । इस प्रकार जो अपने ज्ञायकस्वरूप आत्माको अनुभवता है उसने शुभाशुभभावरूप प्रमत्त और अप्रमत्त अवस्थासे भिन्न आत्माका अनुभव किया यह सिद्ध होता है । इस प्रकार आत्मा पर अनादि कालसे जो प्रमत्त और अप्रमत्तपनेका व्यवहार होता आ रहा है ऐसे अनुभवकी दशामें वह उस व्यवहारसे मुक्त हुआ । तथा आत्माने उक्त प्रकारसे जो अपनेको अनुभवा सो वह अनुभव इन्द्रियादिकको निमित्त कर न उत्पन्न होनेके कारण स्वाश्रित सिद्ध हुआ, इसलिये ऐसे आत्मा पर न तो पराश्रितपनेका ही व्यवहार लागू होता है और न ही अशुद्धपनेका व्यवहार लागू होता है, अतः ऐसा आत्मा उपचरित और अनुपचरित असद्भूत व्यवहार तथा उपचरित सद्भूत व्यवहार से मुक्त होनेके कारण भूतार्थ है यह सिद्ध होता है ।
अब प्रश्न यह है कि गुणमेद आदि कल्पनारूप अनुभवको स्वभावानुभव माननेमें तो आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि गुण भी स्वयं सिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त हैं। आगे इसीका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं
ववहारेणुवदिस्सद्द णाणिस्स चरित दंसणं गाणं ।
ण वि जाण ण चरितं ण दंसण जाणगो सुद्धो ||७||
ज्ञानीके चारित्र है, दर्शन है और ज्ञान है यह व्यवहारसे कहा जाता है। किन्तु वह ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं है । वह तो शुद्ध (भेदकल्पना निरपेक्ष) ज्ञायक ही है ।
बहाँपर मेदकल्पनाकी अपेक्षा ज्ञायक आत्माको ज्ञान, दर्शन और
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