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जैनतस्वमीमांसा भी कब तक वह स्वयं योग्य भूमिकामें नहीं पहुँचती तब तक बाह्य सामग्रीको सन्निधि रहनेपर भी वह इष्ट कार्यरूप नहीं परिणमती, इसीलिये कार्य अपने कालमें स्वयं होता है यह कहा गया है। उदाहरणार्थ अनन्तानन्त विस्रसोपचय आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाह होकर रहते हैं, परन्तु वे सबके सब एक समयमे कर्मरूप नही परिणमते । जब जिनका कर्मरूप होनेका एक काल होता है तभी वे स्वयं कर्मरूप परिणमते है । जीवके कषाय और योग उनको कर्मरूप नहीं परिणमाते ।
शंका-हम यह नहीं कहते कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कार्य करता है, किन्तु हमारा कहना यह है कि एक द्रव्यकी सहायतासे दूसरा द्रव्य अपना कार्य करता है ?
समाधान-एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी सहायतासे अपना कार्य करता है इसका अर्थ क्या है ? क्या यह अर्थ है कि जिस प्रकार हरदी और चूना दोनों मिलकर (एक क्षेत्रावगाहरूप होकर) लाल रंगरूप परिणम जाते हैं उसी प्रकार यदि विवक्षित द्रव्य बाह्य निमित्तरूप द्रव्यके साथ मिलकर कार्य करनेवाला मान लिया जाय तो दोनों द्रव्योंको एक प्रकारके परिणामसे परिणत दिखलाई देना चाहिये। और ऐसी अवस्थामें रसोईया और चावल आदि दोनों द्रव्य रसोईरूप परिणम जायेंगे। । किन्तु ऐसा होता नही, इसलिसे यही मानना चाहिये कि जिसे हम
बाह्य निमित्त कहते हैं उसके विना ही प्रत्येक द्रव्य उससे पृथक् होकर । ही स्वयं अपना कार्य करता है।
शका-हम बाह्म निमित्तकी सहायताका यह अर्थ करते हैं कि उसके विना दूसरा द्रव्य अपना कार्य करने में असमर्थ है ?
समाधान-प्रत्येक द्रव्य बाह्य निमित्तके विना ही स्वयं अपना कार्य करता है। परन्तु कालिक बाह्य व्याप्तिको देखकर ही दो द्रव्योंमें निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्धका व्यवहार किया गया है, इसलिये विवक्षित कार्यके समय उसके साथ अविनाभावको प्राप्त बाह्य निमित्तभूत दूसरा द्रव्य होता ही है, अत: बाह्य निमित्तरूप द्रव्यके विना दूसरा द्रव्य अपना कार्य करने में असमर्थ है यह कहना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। जैसे यह कहा जाता है कि विवक्षित कार्यका बाह्य निमित्त होता है तभी वह कार्य होता है सो उसके स्थानपर हम यह भी कह सकते हैं कि जब विवक्षित कार्य होता है तब उसका बाह्य निमित्त होता ही है, क्योंकि इन दोनोमें रूप-रसके समान समव्याप्ति है। इसी तथ्यको ध्यानमें