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जैनतत्त्वमीमांसा मनको मुख्यतासे प्रवृत्त होता है। अतएव विकल्पात्मक होनेसे वह (श्रुतज्ञान) प्रमाण और नय उभयरूप होता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धिमें कहा भी है
तत्र प्रमाणं द्विविधम् --स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवय॑म् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नया. ॥ अ० १, मू०६।।
प्रकृतमें प्रमाण दो प्रकारका है-स्वार्थ प्रमाण और परार्थ प्रमाण । श्रतको छोड़कर शेष सब ज्ञान स्वार्थ प्रमाण है। परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थके भेदमे दो प्रकारका है। ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण है और वचनात्मक परार्थ प्रमाण है । अ० १, सू०६। ___ तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान, मन.पर्यायज्ञान और केवलज्ञान ये तीनो स्वार्थप्रमाण है, क्योंकि ये परनिरपेक्ष होकर समग्ररूपसे अपने विषयको ग्रहण करते हैं। इनके अतिरिक्त जो मतिज्ञान है वह यद्यपि इन्द्रिय और मनको निमित्तकर होता है फिर भी वह अपने विषयको भेद किये विना समग्रभावसे ग्रहण करता है, इसलिये वह भी स्वार्थप्रमाण है। अब रहा श्रनज्ञान सो वह विकल्पधाराके उभयात्मक होनेसे दोनोंरूप माना गया है। श्रुतज्ञानमें मनका जो विकल्प अखण्डभावसे वस्तुको स्वीकार करता है वह प्रमाणज्ञान है और जो विकल्प वस्तुको एक धर्मकी मुख्यतासे ग्रहण करता है वह नयज्ञान है । सम्यक् श्रुतका भेद होनेसे नयज्ञान भी उतना ही प्रमाण है जितना कि प्रमाणज्ञान । फिर भी शास्त्रकारोने इसे जो अलगसे परिगणित किया है उसका कारण विवक्षाविशेषको दिखलाना मात्र है। जो ज्ञान समग्र वस्तुको अखण्डभावसे स्वीकार करता है उसकी उन्होंने प्रमाणसंज्ञा रखी है और जोज्ञान समग्र वस्तुके विवक्षित धर्मको मुख्यकर ग्रहण करता है उसकी नयसंज्ञा रखी है। सम्यग्ज्ञानके प्रमाण और नय ऐसे दो भेद करनेके यही कारण है। किन्तु इन भेदोंको देखकर यदि कोई सर्वथा यह समझे कि सम्यग्ज्ञानके भेद होकर भी प्रमाणज्ञान यथार्थ है नयज्ञान नही तो उसका ऐसा समझना ठीक नही है, क्तोंकि नयज्ञान भी सशय, विपर्यय और अनध्यवसायके विना प्रकृत वस्तुको ही उसीरूपमें विषय करता है। तात्पर्य यह है कि नयज्ञानका प्रयोजन भी धर्मविशेषके द्वारा यथावस्थित बस्तु. का ज्ञान करना है, इसलिये उसकी अप्रमाणकोटिमें परिगणना नहीं की जा सकती। इन दोनोंमें यदि कोई अन्तर है तो इतना ही कि