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निश्चय-व्यवहारमीमांसा
२९१ विकारको उत्पन्न कर उनकी पर्यायोंको विकारी बनाता हो ऐसा नहीं है। अपने त्रिकाली स्वभावको विस्मृत करने पर उनका उदय होता है इसलिये उन्हें विभावपर्याय या विकारीपर्याय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवका जानना-देखना स्वभाव है। इसको गौणकर जब जीव परमे ममकार और अहंकार करता है तब इसने अपने स्वभावके विरुद्ध परिणमन किया, इसलिये ऐसे परिणमनको ही विभावपर्याय या विकारीपर्याय शब्द द्वारा अभिहित किया गया है। मोक्षमार्गकी दृष्टिसे अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावको लक्ष्यमें लेनेका प्रमुखतासे जो उपदेश दिया जाता है वह इसीलिये दिया जाता है। ६ प्रमाण-नयस्वरूप निर्देश ___ संक्षेपमें यह ज्ञेयतत्त्व मीमांसा है । जो ज्ञान न्यूनता और अधिकतासे रहित होकर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायके बिना यथावस्थित पदार्थको उसी रूपमें जानता है वह सम्यग्ज्ञान है । दर्शनशास्त्र में ऐसे ज्ञानको 'प्रमाण' ज्ञान सज्ञा दी गई है। प्रकृतमें सम्यग्ज्ञान दर्पण स्थानीय है। अविकल स्वच्छ दर्पणमें जो पदार्थ जिसरूपमें अवस्थित होता है वह उसी रूपमे प्रतिबिम्बित होता है। यही सम्यग्ज्ञानको स्थिति है। जिस प्रकार अपनी बनावटमें ठीक स्वच्छ दर्पणमें समग्र वस्तु अखण्डभावसे प्रतिबिम्बित होती है उसी प्रकार प्रमाणज्ञानमें भी समग्र वस्तु गुण-पर्यायका भेद किये बिना अखण्डरूपसे विषयभावको प्राप्त होती है। इसका भाव यह नहीं है कि प्रमाणज्ञान गुणों और पर्यायोंको नहीं जानता। जानता अवश्य है, परन्तु वह इन सहित समग्न वस्तुको गौण-मुख्यका भेद किये बिना युगपत् जानता है !
इसके आश्रयसे जब किसी एक वस्तुका किसी एक धर्मको मुख्यतासे प्रतिपादन किया जाता है तब उसमें अशेष धर्म अमेदवृत्ति या अभेदोपचारसे अन्तनिहित समझे जाते हैं। इसलिये प्रमाण सप्तभगीमें प्रत्येक भंग अशेष वस्तुका कथन करनेवाला स्वीकार किया गया है। यह तो प्रमाणज्ञान और उसके आधारसे होनेवाले बचन व्यवहारकी स्थिति है। __ अब थोड़ा नयदृष्टिसे इसका विचार कीजिये। यों तो सम्यग्दर्शन आदिके सद्भावमें जितना भी क्षायोपशमिक और क्षायिक ज्ञान होता है वह सब प्रमाणज्ञान ही है, क्योंकि उसमे विकल्प द्वारा भेदादि द्वारा वस्तुका निर्णय करना मुख्य नहीं है। किन्तु प्रमाणज्ञानका श्रुतज्ञान एक ऐसा भेद है जो श्रुतशानके विषयभूत अर्थको ग्रहण करनेवाले