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जनतत्त्वमीमांसा जिस प्रकार सम्यक्त्वमें श्रद्धानको मुख्यता है, गुणोंमें तपकी मुख्यता है और ध्यानमे एकरस ध्येयकी मुख्यता है उसी प्रकार अनेकान्तकी सिद्धिमें नयज्ञानको मुख्यता है ।। १७६ ॥
शंका-अनेकान्तको सिद्धि प्रमाण सप्तभगोके द्वारा हो जाती है। उसके लिये नयसप्तभंगीकी आवश्यकता नहीं, अतः सम्यग्ज्ञान प्रमाणरूप ही रहा आवे, उसका एक भेद नय भी है ऐसा क्यों स्वीकार किया गया है?
समाधान-प्रमाणसप्तभंगोमे भी प्रत्येक भंग नयात्मक ही होता है। मात्र उसमें 'स्यात्' पद द्वारा अनुक्त धर्मोको स्वीकार कर लिया जाता है, इसीलिये आगममे नयज्ञानको भी सम्यग्ज्ञानके भेदरूपसे स्वीकार किया गया है।
तात्पर्य यह है कि जितना भी वचन प्रयोग होता है वह सब नयात्मक ही होता है। लोकमे ऐसा एक भी वचन उपलब्ध नही होता जो धर्म विशेषके द्वारा वस्तुका प्रतिपादन या द्योतन न करता हो। उदाहरणार्थ 'द्रव्य' शब्द ही लीजिए, इसे हम 'जो अपने गुण-पर्यायवाला हो या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हो' इस अर्थमें रूढ़ करके द्रव्यको व्याख्या करते है, परन्तु इसका यौगिक अर्थ 'जो द्रवता है, अर्थात् व्यापता है' वह 'द्रव्य' यही होता है। इसलिए जितना वचन व्यवहार है वह तो नयरूप ही है। फिर भी हम प्रमाण सप्तभंगीके प्रत्येक भंगमे कहीं पर 'स्यात्' शब्द द्वारा अभेदवृत्ति करके और कही पर उसी द्वारा अभेदोपचार करके सब भंगोंके समूहको प्रमाण सप्तभंगी कहते हैं। उनमेंसे प्रथम भंग द्रव्याथिकनयकी मुख्यतासे कहा जाता है। यतः प्रकृतमें 'द्रव्य' पद सामान्यवाची है, अत अपने गुण-पर्यायोंको व्यापनेके कारण प्रथम भंगमें अभेद वृत्तिकी मुख्यता रहती है। दूसरा भंग पर्यायाथिक नयको मुख्यतासे कहा जाता है, क्योंकि पर्याय एक समयवर्ती धर्मविशेष है जिसके द्वारा पूरे द्रव्यका ग्रहण नही होता, किन्तु यह एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यसे पृथक करने में समर्थ है, इसलिए इसमें विवक्षित द्रव्यके शेष बहभागका अभेदोपचार किया जाता है। इनके अतिरिक्त शेष भंग क्रमसे और अक्रमसे दोनों नयोंकी मुख्यतासे कहे जाते हैं, इसलिए उनमें उसो विधिसे अभेद वृत्ति और अभेदोपचारकी मुख्यता रहती है। यद्यपि प्रत्येक भंग नयात्मक ही होता है, परन्तु यह वक्ताको विवक्षा पर निर्भर है कि कहाँ किस वचनका किस अभिप्रायसे प्रयोग कर रहा है। एक ही वचन प्रमाण