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जैनतत्त्वमीमांसा उल्लेख गोम्मटसार कर्मकाण्डमें भी दृष्टिगोचर होता है । वे हैं एकान्तकालवाद, एकान्त ईश्वरवाद, एकान्त आत्मवाद, एकान्त नियतिवाद और एकान्त स्वभाववाद। इसके लिए देखिये गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ८७९ से ८८३ तक। अब विचार कीजिये कि जैनदर्शन इनमेंसे कारणरूपसे किसे नहीं स्वीकारता, अपि तो वह किसी न किसी रूपमें सभीको कारणरूपसे स्वीकार करता है, क्योंकि वह कार्यके प्रति कालको भी कारण मानता है, ईश्वरके स्थानमें अनुकूल बाह्य सामग्रीको भी कारण मानता है। आत्माके स्थानपर जीवादि प्रत्येक द्रव्यसामान्यको भी कारणरूपसे स्वीकार करता है। नियतिके स्थान क्रमनियमित प्रत्येक उपादानको भी कारणरूपसे स्वीकार करता है और स्वभावको भी कारणरूपसे स्वीकार करता है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर पण्डित प्रवर बनारसीदासजीने 'पवस्वभाव पूरव उदय' इत्यादि दोहा लिपिबद्ध किया है। और साथ ही यह सूचना भी की है कि इनमेंसे मात्र किसी एकको कारण मानना मिथ्यात्व (अज्ञान) है। मोक्षमार्गी तो सबमे कारणता स्वीकार करता है। यह दूसरी बात है कि इनमेंसे कोन कारण कार्यरूप वस्तुका अंग होनेसे परमार्थस्वरूप है और कोन वास्तविक कारण न होनेसे बाह्य-व्याप्तिवश स्वीकार किया गया है । __ हम देखते है कि लोकमें यथा प्रयोजन किसी एकको मुख्य कर कथन करने और उसके अतिरिक्त सबको गौण कर देनेकी पद्धति है। जैसे किसानोंको खेतीमें सफलता मिलने पर कोई ईश्वरको धन्यवाद देता है, कोई अपने परिश्रमको और कोई भाग्यको। विचार कर देखा जाय तो प्रयत्नपूर्वक खेत भी जुता हआ था, उसमें खात भी पड़ा था, बीज भी पुष्ट था ऋतु भी अनुकूल थी और किसानने परिश्रम भी खूब किया था। इस प्रकार बाह्य-आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता थी पर किसी एकको मुख्यकर और शेषको गौण कर यह कहा जाता है कि भाई ! तुमने खूब परिश्रम किया इसका यह फल है आदि ।
यह गोण-मुख्य रूपसे कथन करनेकी पद्धति आगममे भी स्वीकार की गई है। कर्मकी अपेक्षा जब कथन किया जाता है तब यह कहा जाता है कि दर्शनमोहनीय कर्मके उपशमसे उपशम सम्यग्दर्शन होता है, मनुष्यायुके उदयसे मनुष्य पर्याय मिलती है आदि। विचार कर देखा
१. आत्माके स्थानमें पुरुषार्थ और निर्यातके स्थानमें निश्चय उपादान अर्थ जैन
दर्शनमें गृहीत है।