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जैनतत्त्वमीमांसा
णादिरूप प्रकृतिभेदमें बाह्य निमित्त नहीं होता किन्तु ज्ञानावरणादिरूप प्रकृतिबन्ध में बाह्य निमित्त होता है तब अर्थात् यह बात आ जाती है कि प्रत्येक कर्मको कार्मणवर्गणाऐं ही अलग-अलग होती है। फिर भी इस बात के समर्थन में हम आगम प्रमाण उपस्थित कर देना आवश्यक मानते हैं । वर्गणाखड बन्धन अनुयोग द्वार चूलिका में कार्मण द्रव्यवर्गणा किसे कहते हैं इसकी व्याख्या करनेके लिए एक सूत्र आया है। उसकी व्याख्या करते हुए वीरसेन आचार्य कहते है
णाणावरणीयस्स जाणि पाओम्माणि दव्वाणि ताणि चेव मिच्छत्तादिपञ्चएहि पचणाणावरणीय सरूवेण परिणमति ण अण्णेसि सरूवेण । कुदो ? अप्पाओग्गतादो। एवं सव्वेसि कम्माण वत्तव्य, अण्णहा णाणावरणीयस्स जाणि दव्वाणि ताणि घेत्तूण मिच्छत्तादिपञ्च एहि णाणावरणीयत्ताए परिणामेदूण जीवा परिणमति सि सुत्ताणुववत्तदो । जदि एवं तो कम्मइयवग्गणाओ अट्ठेव त्ति किण्ण परूविदाओ ? ण, अतराभावेण तथोव देसाभावादो ।
इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणीयके योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्व आदि प्रत्ययोके कारण पाँच ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमन करते हैं, अन्यरूपसे वे परिणमन नही करते, क्योकि वे अन्य कर्मरूप परिणमन करनेके अयोग्य होते हैं। इसी प्रकार सब कर्मोंके विषयमें व्याख्यान करना चाहिए। अन्यथा 'ज्ञानावरणीयके जो द्रव्य है उन्हें ग्रहण कर मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमा कर जीव परिणमन करते है यह सूत्र नही बन सकता है ।
शंका- यदि ऐसा है तो कार्मण वर्गणाऐ आठ है ऐसा कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान- नही, क्योंकि आठो कर्मवर्गणाओंमें अन्तरका अभाव होनेसे उस प्रकारका उपदेश नही पाया जाता ।
यह षट्खंडागमके उक्त सूत्रके कथनका सार है जो अपनेमें स्पष्ट होकर उपादानकी विशेषताको ही सूचित करता है । यहाँ यह भी कहा गया है कि ज्ञानावरणकी वर्गणाऐं ही ऐसी द्रव्य-पर्याय योग्यतावाली होती है कि वे ज्ञानवरणरूपसे परिणमन करती हैं। सो क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि जिन वर्गणाओंमें जिस समय ज्ञानावरणरूपसे परिणमनको योग्यता होती है उसी समय वे उसरूपसे परिणमन करती हैं, अन्य समय में नहीं । सामान्य योग्यता मानना और विशेष योग्यता नहीं |मानना केवल आत्मवंचना है ।