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क्रम-नियमितपयमीमांसा
२६९ करता है और तभी उसने 'क्रमनियमित' के सिद्धान्तको परमार्थरूपसे स्वीकार किया यह कहा जा सकता है। 'क्रमनियमित का सिवान्त स्वयं अपनेमें मौलिक होकर आत्माके परसम्बन्धी अकर्तापनको सिद्ध करता है। प्रकृतमें अकर्ताका फलितार्थ हो शाता-दृष्टा है । आत्मा परका अकर्ता होकर ज्ञाता दृष्टा तभी हो सकता है जब वह भीतरसे 'क्रमनियमित' के सिद्धान्तको स्वीकार कर लेता है, इसलिए मोक्षमार्गमें इस सिद्धान्तका बहुत बड़ा स्थान है ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिए । इस विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र उक्त गाथाओंकी टीका करते हुए कहते हैं
जीवो हि तावत् क्रमनियमितास्मपरिणामरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः, सर्वव्याणा स्वपरिणामः सह तादात्म्यात् कंकणादिपरिणामः काञ्चनवत् । एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमनस्याप्यजीवेन सह कार्यकारणभावो न सिवपति, सर्बद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पायोत्पादकभावाभावात् । तदसिखो चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिद्यचति । तदसिद्धी च कर्तृ-कर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वाद् जीवस्याजीवकतृत्वं न सिद्धयति, अतो जीवोऽकर्ताऽवतिष्ठते ॥३०८-३११॥
प्रथम तो जीव क्रमनियमित अपने परिणामो ( पर्यायों) से उत्पन्न होता हुआ जीव हो है, अजीव नहीं, इसीप्रकार अजीव भी क्रमनियमित अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं, क्योंकि जैसे सूवर्णका ककण आदि परिणामोंके साथ तादात्म्य है वैसे ही सब द्रव्योका अपने अपने परिणामोंके साथ तादात्म्य है। इस प्रकार जीव अपने परिणामोसे उत्पन्न होता है, अत: उसका अजीवके साथ कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सब द्रव्योंका अन्य द्रव्योंके साथ उत्पाद्य-उत्पादक भावका अभाव है और एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ कार्यकारणभाव सिद्ध न होनेपर अजीव जीवका कर्म है यह सिद्ध नहीं होता और अजीवके जोवका कर्मत्व सिद्ध न होने पर कर्ता-कर्म परनिरपेक्ष सिद्ध होता है और कर्ता-कर्मके निरपेक्ष सिद्ध होनेसे जीव अजीवका कर्ता सिद्ध नहीं होता, इसलिए जीव अकर्ता है यह व्यवस्था बन जाती है।
इस उद्धरणमें यह सिद्ध करके बतलाया गया है कि प्रत्येक द्रब्यकी प्रत्येक पर्याय क्रमनियमितरूपसे उसकी उत्पाद्य होती है और वह द्रव्य