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जैनतत्वमीमांसा प्राप्त होता है, इसलिये उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले या तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले सर्वसंक्लिष्ट सज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये।
यहाँ उक्त उद्धरणमें जो मुख्य बात कही गई है वह यह कि भले ही अनुभाग सत्कर्म उत्कृष्टसे कम हो, पर ऐसे जीवके भी उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम हो सकता है। दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि यद्यपि स्थावरोके द्विस्थानीय अनुभाग सत्कर्म है, किन्तु जब सज्ञी पञ्चेन्द्रिय हा तो चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध करने लगता है । सो क्यों? अतः इस उद्धरणसे भी यही निरिक्त होता है कि जितने भी कार्य होते हैं वे (निश्चय उपादालके अनुसार ही होते हैं। बाह्य वस्तुमें जो साधनता स्वीकार की गई है वह मात्र बाह्यव्याप्तिवश ही स्वीकार की गई है। ___ यह वस्तुस्थिति है। ऐसा होनेपर भी उसे स्वीकार नहीं करना और आगमका कल्पित ढगसे उपयोग करना फिर भी श्रुतज्ञान और आगमकी दुहाई देना केवल पाठको और श्रोताओके चित्तमे भ्रम उत्पन्न करनेके सिवाय और क्या हो सकता है । दर्शन-न्यायके ग्रन्थोको लोजिये या मात्र स्वसमयकी प्ररूपणा करनेवाले ग्रन्थोंको लीजिये, उनमे यह एक स्वरसे स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक द्रव्यमे प्रति समय कार्यकरणक्षम योग्यता होती है। ऐसी अवस्थामें वह किसी निश्चय उपादानमे हो और किसी निश्चय उपादानमें न हो ऐसा नहीं है और न शास्त्रकार ऐसा कहते ही है। इसकी पुष्टि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके इस वचनसे भी होती है
क्रमभुवो पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तरूपादानोपादेयत्ववचनात् । न चैवविध कार्य-कारणभाव' सिद्धान्तविरुद्ध । सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं तत् स्यात्, एकद्रव्यप्रत्यासतेरभावादिति चेत ? कालप्रत्यासत्तिविशेषात्तत्सिद्धि. । पृ० १५१ ।
क्रमसे होनेवाली दो पर्यायोमे एक द्रव्यप्रत्यासत्ति होनेसे उपादानउपादेयपना कहा गया है और इस प्रकारका कार्य-कारणभाव सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है।
शका-सहकारी कारणके साथ कार्यका वह कार्य-कारणभाव किस प्रकार होता है, क्योंकि इस कार्य-कारणभावमें एकद्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव है? ___समाधान-कालप्रत्यासत्ति विशेष होनेसे उसके साथ भी कार्य-कारणभावकी सिद्धि होती है।