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जेनतत्त्वमीमांसा भेद होनेसे ही वे दो माने गये हैं। वैसे जो पूर्व पर्यायका व्यय है वही अगली पर्यायका उत्पाद है। घटका विनाश ही कपालोंको उत्पत्ति है। कहा भी है कार्योत्पाद: क्षयः । आगममे जो हेतू दिया जाता है वह विवक्षित अभिप्रायकी पुष्टिकी दृष्टिसे ही दिया जाता है। एकान्तसे उसे स्वीकार कर लेना युक्तियुक्त नहीं है। नय दो है--निश्चयनय और व्यवहारनय । निश्चयनय तो जो वस्तु जैसी है उसे उसी प्रकार कहता है। किन्तु व्यवहारनय बाह्य संयोग आदिके आधारसे उसका कथन । करता है। यह इष्टार्थकी सिद्धिका तरीका है। किन्तु व्यवहारनयके कथनको ही परमार्थ मान लेना उचित नहीं है। परमार्थसे सामान्यविशेष उभयरूप प्रत्येक वस्तू स्वाश्रित है, पराश्रित नही। मात्र परके द्वारा उसकी सिद्धिकी जाती है, इमलिये व्यवहारनय भले ही पराश्रित हो, पर इससे वस्तुको ही पराश्रित मानना आगमका अपलाप करना है। इसलिये यह निश्चित होता है कि अकाल मरणका जो अर्थ दूसरे महानुभाव करते है वह ठीक नही होकर यही मानना उचित है कि सब पर्यायोका काल अपने-अपने नियत उपादानके अनुसार निश्चित है उसमें फेर-फार नही हो सकता।
(२) वे महाशय अपने कल्पित अर्थकी सिद्धिमे उदीरणा आदिको भी उपस्थित करते है, किन्तु क्या वे यह कहनेका साहस कर सकते है कि जो कर्म परमाणु उपशमकरण अवस्थाको प्राप्त हैं उनकी कभी भी उदीरणा हो सकती है या जो कर्मपरमाणु निधत्तिकरण अवस्थाको प्राप्त है उनकी कभी भी उदीरणा और सक्रम हो सकता है। या जो कर्मपग्माणु निकाचितकरण अवस्थाको प्राप्त है उनकी कभी भी उदीरणा, संक्रम, उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है। यदि नही तो उन्हे यह मान लेनेमे आपत्ति नहीं होनी चाहिये कि जिन कर्मपरमाणुओमें जैसी योग्यता होती है उसका परिपाककाल आनेपर वही कार्य होता है। इसमे सभी पर्यायें क्रम नियमित ही होती है यही सिद्ध होता है ।
(३) जब संसारका अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल शेष रहता है तब सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना सम्भव है यह आगमका स्पष्ट निर्देश है। किन्तु वे महाशय अपने अभिप्रायकी पुष्टिमें इसका भी दुरुपयोग करते है। वे कहते है कि जब-जब अर्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहता है तब-तब सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना सम्भव है। किन्तु उन्हें समझना चाहिये कि जिस अर्धपुद्गल परिवर्तनके आदिमे सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होती