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'' क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
२३९ धान्यके बीजमें जौके अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति होवे । यदि ऐसा होने लगे तो किससे किस कार्यको उत्पत्ति हो इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। इसलिये किसी भी क्षेत्रमें और किसी भी कालमें अन्तरंग कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा निश्चय करना । चाहिये।
यह कितना तथ्यपूर्ण और स्पष्ट वचन है। इससे हम जानते हैं कि निश्चयनय वस्तुस्वरूपका दिग्दर्शन करनेवाला होनेसे निरपेक्ष ही होता है। यह तो व्यवहारनयकी ही दुर्बलता है कि वह दूसरे बाह्य पदार्थोकी अपेक्षासे विवक्षित पदार्थका निरूपण करता है। जैसे किसी पुरुषको महान् कहा जाय तो निश्चयनयकी ओरसे तो यह कहा जायगा कि वह अपने विनम्र और निष्कपट स्वभावके कारण महान् है, किन्तु व्यवहारनयकी ओरसे उसे महान् उसके अनुयायियों आदिको देखकर कहा जायगा। और इसीलिये आगममे निश्चयनयको स्वाश्रित औरव्यवहारनयको पराश्रित कहा गया है।
इस प्रकार जड़-चेतन सभी पदार्थोके प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति समयसमयके अन्य-अन्य निश्चय उपादानके अनुसार ही होती है यह सिद्ध हो जानेपर सभी द्रव्योंकी स्वभाव-विभावरूप सभी पर्यायें क्रमनियमित ही होती हैं यह सुतरां सिद्ध हो जाता है। ९ कल्पित विपरीत मान्यताओंका निरसन ____ आगे कतिपय महानुभाव जो आगमकी दुहाई देकर अपनी कल्पित विपरीत मान्यताओ द्वारा स्वाध्याय प्रेमियोंको गुमराह करनेकी चेष्टा करते रहते हैं उनकी वे मान्यताएं कैसे आगम बाह्य अतएव निःसार हैं इसपर विचार किया जाता है
१ पहली बात उन महाशयोंकी अकाल मरणके सम्बन्धमें है। इस सम्बन्धमें आगम क्या है यह देखना है । कर्मशास्त्रके नियमानुसार देवादिक जीवोंकी आयु अनपवयं होती है इतना ही कहा है। इसका अर्थ। इतना ही है कि उन जीवोंकी आयुके निषेकस्थितिका अपवर्तन नहीं होता। अर्थात् इन जीवोंकी आयुस्थिति निधत्ति और निकाचित बन्ध रूप होती है। इसीलिये इन जीवोंकी आयुको अनपवर्त्य कहा है। शेष जीवोंकी आयुके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं है। यह वस्तुस्थिति है।
इसको दृष्टि ओझल करके यदि वे महाशय अपवस्यं आयुका अर्थ क्रम नियमित पर्यायके निषेधके अर्थमें करके कहते हैं कि मरणके जब