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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा २२५ एक समान नहीं होता, इसलिये सबको पढ़ने पर भी एक समान ज्ञान नहीं होता ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि तब भी यही प्रश्न होता है कि जब सबको एक समान बाह्य सामग्री सुलभ है तब सबका एक समान क्षयोपशम क्यों नहीं होता ? जो महाशय उपादानका इतना ही अर्थ करते हैं कि जो कार्यरूप परिणत होता है या जिसमें कार्य उत्पन्न होता है वह उपादान है, कार्योत्पादक तो वास्तवमें बाह्य सामग्री है। उनको अन्तमें इस प्रश्नका ठीक उत्तर प्राप्त करनेके लिये निश्चय उपादानपर हो आना पड़ता है। तब यही मानना पड़ता है कि जब किसी भी कार्यका कार्योत्पादक निश्चय उपादानका स्वकाल आता है तब अव्यवहित उत्तर समयमें वह कार्य नियमसे होता है और असद्भूत ध्यवहारनयसे तदनुकूल बाह्य सामग्रीका योग भी बनता रहता है। कहीं वह साधन सामग्री अनायास मिलती है और कहीं वह प्रयत्नपूर्वक मिलती है..पर वह मिलती अवश्य है। जहाँ प्रयत्नपूर्वक मिलती है वहाँ उसको निमित्त कर होनेवाले उस कार्य में प्रयत्नकी मुख्यता कही जाती है और जहाँ बिना। प्रयत्नके मिलती है वहाँ दैवकी मुख्यता कही जाती है। देवका अर्थ | पुरातन कर्म और योग्यता हैं, इसलिये निष्कर्ष यह निकलता है कि निश्चय उपादानको दृष्टिसे कार्योत्पादनक्षम योग्यता दोनों जगह अन.. स्यूत है । निश्चय उपादानसे अलग योग्यताको पृथक् गिनानेका कारण भी यही है।
शंका-कार्यके उत्पन्न करनेमे जो बाह्य सामग्री निमित्त होती है उसमें भी कार्योत्पादनक्षम योग्यता स्वीकार करने में क्या आपत्ति है ?
समाधान-पृथकभूत बाह्य सामग्रीमें परमार्थसे उससे भिन्न कार्यका वास्तविक कारण माननेपर एक तो उसे कार्यद्रव्यसे अभिन्न माननेका , प्रसंग आता है दूसरे वह स्वयं अपने कार्यरूप परिणत होने में व्याप्त रहती है, इसलिये उसमें परमार्थसे ऐसी योग्यता नहीं स्वीकार की
शंका-अन्य द्रव्यके कार्य का कर्ता होनेकी योग्यता बाह्य सामग्रीमें भले ही न हो, आगममें निषेध भी इमीका किया गया है। करणादि रूपसे वास्तविक योग्यता मानने में क्या आपत्ति है।
समाधान-एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके कार्य का वास्तविक कर्ता नहीं होता यह उपलक्षण वचन है । इससे कर्म, करण आदि सभी कारकोंका । निषेध हो जाता है। इसलिये एक द्रव्यके कार्यके करनेकी या तद्विषयक