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जैनतत्वमीमांसा इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां व्यवहारसे अन्य द्रव्यके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहा जाता है वहीं जब प्रत्येक द्रव्य प्रति समय स्वभावसे स्वयं षटकारकरूपसे प्रवर्तित होता है तब प्रत्येक द्रव्यकी स्वभाव पर्यायकी उत्पत्तिके समय उसका स्वयं षट्कारकरूपसे प्रवृत्त हाना सुनिश्चित ही घटित होता है। असद्भुत व्यवहारनयसे जा प्रत्येक कार्यमें कारकान्तर सापेक्षता कही गई है वह केवल इसीलिये विकल्पका विषय है, क्योकि वस्तुमे स्वभावसे सापेक्षता नहीं घटित होती यह उक्त कथनसे ही स्पष्ट हो जाता है । आगममें विभावपर्याय और स्वभावपर्यायके होने में जो अन्तर बतलाया गया है वह केवल इस कारण बतलाया गया है कि जब यह आत्मा स्वयको रागादिसे भिन्न ज्ञायक. स्वभावरूपसे अनुभवता है तब स्वभाव पर्याय उत्पन्न होती है और जब मै 'रागादिरूप हैं। इस रूपसे अनुभवता है तब विभाव पर्याय उत्पन्न होती है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अनगारचर्मामत अध्याय ८ मे पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं
यदि टकोन्कीर्णेकज्ञायकभावस्वभावमात्मानम् ।।
रागादिभ्य सम्यग्विविच्य पश्यामि मुद्गस्मि ॥ ७ ॥ रागादिभावोंसे स्वयंको पृथक् करके यदि मै स्वयं अपने आत्माको टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभावसे अनुभवता हूँ तो उस समय सम्यरदृष्टि होता हूँ॥ ७॥ ___ इसकी टीकामें वे स्वयं लिखते है-मैं स्वयं सम्यग्दर्शनरूप हूँ, यदि अनुभवता हैं, किसको अनुभवता हैं? अपने आत्माको किस रूप अनुभवता हूँ ? कर्तृत्व और भोक्तृत्वसे रहित एक टकोत्कीर्ण ज्ञायकभावरूप अर्थात् निश्चल सुव्यक्त आकारवाले । क्या करके ? पृथक् करके अर्थात् पृथकरूपसे अनुभव करके । किनसे ? रागादिकसे अर्थात् राग, द्वोष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय और इन्द्रियोंसे । कैसे अनुभवता हूँ ? विपरीतताके विना ॥ ७ ॥ इसी तथ्यको और स्पष्ट करते हुए वे पुन' कहते हैं
ज्ञानं ज्ञानत्तया ज्ञानमेव रागो रजत्तया ।
गग एवास्ति न त्वन्यत्तच्चिद्रागोऽस्म्यचित् कथम् ।।८।। जाननपनेसे अर्थात् स्व-परके अवमासनस्वभाव होनेसे ज्ञान है किन्तु ज्ञान राग नहीं है तथा अनुरजनस्वभाव होनेसे अर्थात् जो इष्ट लगे उसके