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षदकारकमीमांसा सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करनेरूप काम कर दिया। इसलिये इसे असद्भूत व्यवहार नयका वक्तव्य कहा गया है । यह परमार्थ कथन नहीं है।
शंका-तो परमार्थ क्या है ?
समाधान--जिस समय आत्माने स्वतन्त्ररूपसे स्वयं अपने निकाली मायक स्वभावके सन्मुख होकर अपनी सम्यग्दर्शनरूप स्वभाव पर्यायको उत्पन्न किया उसी समय कर्मने स्वयं स्वतन्त्र रूपसे अपनी कर्मसंज्ञावाली पर्यायसे विमुख होकर अन्य पर्यायको उत्पन्न किया यह परमार्थ सत्य है । १० विभाव पर्याय और निश्चय षट्कारक
विभाव पर्यायकी उत्पत्तिमें निश्चय षट्कारक केसे प्रवृत्त रहते है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय गाथा ६२ की समय टीकामें कहते हैं__ अब निश्चयनयसे अभिन्न कारकपना होनेसे कर्म और जीव स्वयं स्वभावके कर्ता आदि है यह स्पष्ट करते हैं-(१) कर्म वास्तवमें कर्म• रूपसे प्रवर्तमान पद्गलस्कन्धपनेसे कर्तृत्वको धारण करता हुआ, (२) कर्मपना प्राप्त करनेकी शक्तिरूप करणपनेको अंगीकृत करता हुआ, (३) प्राप्य ऐसे कर्मस्वपरिणामरूपसे कर्मपनेको अनुभव करता हआ, (४) पूर्वभावका व्यय हो जानेपर भी ध्रुवत्वका अवलम्बन करनेसे अपादानपनेको प्राप्त करता हुआ, (५) उत्पन्न होनेवाले परिणामरूप कर्मद्वारा समाश्रित होनेसे सम्प्रदानपनेको प्राप्त करता हुआ और (६) धारण करते हुए परिणामका आधार होनेसे अधिकरणपनेको प्रप्त होता हुआ इस प्रकार स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारकको अपेक्षा नहीं करता।
इसी प्रकार जीव भी (१) भावपर्यायरूपसे प्रवर्तमान आत्मद्रव्यरूपसे कर्तापनेको धारण करता हुआ, (२) भावपर्याय प्राप्त करनेकी शक्तिरूपसे करणपनेको अंगीकृत करता हुमा (३) प्राप्त हुई भावपर्यायरूपसे कर्मपनेको अनुभव करता हुआ, (४) पूर्वको भावपर्यायका व्यय होनेपर भी - ध्रुवपनेका अवलम्बन होनेसे अपादानपनेको प्राप्त हुआ, (५) उत्पन्न होनेवाले भावपर्यायरूप कर्मद्वारा समाश्रित होनेसे सम्प्रदानपनेको प्राप्त हुमा और (६) धारणकी जानेवाली भावपर्यायका आधार होनेसे अधिकरणपनेको प्राप्त हुमा इस प्रकार स्वयं ही षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं करता।