________________
HER
emiedomamwamme
mam
षट्कारकमीमांसा समाधान-प्रत्येक द्रव्य अपने स्वचतुष्टयको छोड़कर अन्यरूप त्रिकालमें नहीं होता यह ध्रुव सत्य है। इस अपेक्षा यदि विचार कर देखा जाय तो एक द्रव्यके षटकारक उसके उसीमें घटित होते हैं, अन्य द्रव्यके तव्यतिरिक्त अन्य द्रव्यमें नहीं। यही कारण है कि प्रकृतमें धर्मादिक द्रव्योंको आधेय कहना और आकाशको उसका आधार कहना प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर की गई मात्र कल्पना हो है क्योंकि भेद होनेपर भी अभेदका उपचार करके यह कहा गया है । देखो अनगारधर्मामृत अ०१, श्लो० १०४ की स्वोपज्ञ टीका ।
शंका--तो क्या यह कल्पना वन्ध्याके पुत्रको कल्पनाके समान सर्वथा निराधार ही की गई है ?
समाधान--नहीं, आकाशद्रव्य परिमाणकी अपेक्षा व्यापक है, और , धर्मादिक द्रव्य व्याप्य हैं। इस बाह्य व्याप्तिको देखकर ही यह कल्पना की गई है कि धर्मादिक द्रव्य आधेय हैं और आकाश द्रव्य उनका आधार है।
शंका-जब कि आकाशमे अवगाहनहेतृत्व नामका गुण है, तब आकाश धर्मादिक द्रव्योंको वास्तवमें अवगाहन करता है ऐसा मानने में क्या आपत्ति है?
समाधान-ऐसा माननेपर धर्मादिक द्रव्य आकाशरूप होकर उनका अभाव हो जायगा और ऐसा होनेपर आकाशका भी अभाव हो जायगा। जो यक्ति-यक्त नहीं है। अतएव मात्र उक्त गुणके कारण आकाशमें यह व्यवहार होता है कि धर्मादिक द्रव्य आधेय हैं और आकाश उनका आधार है। पंचास्तिकाय समय टीकाके 'व्यवहारनयव्यवस्थापितो उदासीनौ' इस वचनके अनुसार आकाशद्रव्य सब द्रव्योंके अवगाहनमें व्यवहारनयकी अपेक्षा उदासीन निमित्त है यही सिद्ध होता है, ऐसा, प्रकृतमें समझना चाहिए, दूसरे इस गुणके कारण ऐसा नियम हो जाता है कि आकाश एक मात्र आधार व्यवहारका बाह्य हेतु है, अन्य प्रकारके | कार्योका व्यवहार हेतु नहीं । ___ शंका-यदि ऐसा है तो जिनकी प्रेरणासे अन्य जीव-पुद्गलों में क्रिया होती है उन्हें निमित्तकर्तारूपसे स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अन्यथा इन धर्मादिक द्रव्योंको उदासीन निमित्त कहना बनता नहीं ? मालूम पड़ता है कि इसीलिए ही आचार्योन बायु आदिको ध्वजा आदिके फड़कनेमें निमितकर्ता कहा है ?