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जैनतत्त्वमीमांसा
भावोंका अभाव होनेसे वह निरास्त्रव ही है । किन्तु वह भी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्टरूपसे देखने, जानने और आचरनेमें असमर्थ होता हुआ जघन्यरूपसे ही ज्ञानको देखता, जानता और आचरता है तबतक उसके जघन्य भाव अन्यथा हो नहीं सकता इससे अनुमान किये गये अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकके उदयका सद्भाव होनेसे पुद्गलकर्मका बन्ध होता है।
मन द्वारा बाह्य विषयोका आलम्बन करके जो परिणाम प्रवृत्त होते हैं और अपने अनुभवमें भी आते है तथा दूसरे पुरुष अनुमान द्वारा जिनको जान सकते है वे बुद्धिपूर्वक परिणाम कहलाते हैं । किन्तु जो इन्द्रिय और मनके बिना अर्थात् अभिप्रायके बिना केवल मोहोदय के निमित्तसे प्रवृत्त होते हैं वे अबुद्धिपूर्वक परिणाम कहलाते हैं । इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टिके जो अविरति पाई जाती है वह अभिप्राय पूर्वक न होनेसे वह उसका बुद्धिपूर्वक कर्ता नही होता । उसका सद्भाव कर्मादयके साथ है, ज्ञानभावके साथ नही । इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता
कि मिथ्यादृष्टिके अज्ञानभावके रहते हुए जिस जातिकी अविरति पाई जाती है, ज्ञानीके उसका अभाव ही समझना चाहिये ।
शंका - जोवकाण्डमे सम्यग्दृष्टिके अविरतिका कथन करते हुए बतलाया है कि वह इन्द्रियोके विषयोसे तथा त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा से विरत नही होता सो क्या बात है । क्या इस कथनका पूर्वोक्त कथन साथ विरोध नही आता ?
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समाधान - जीवकाण्ड करणानुयोगका ग्रन्थ है, उसमें जितना भी कथन हुआ है वह पर्यायकी अपेक्षा ही हुआ है। मन, वचन और aranी प्रवृत्तिको अपेक्षा नहीं । सम्यग्दृष्टिका समग्र जीवन विवेक पूर्वक ही होता है, इसलिये उसके बिना प्रयोजनके स्थावर हिसा भी नही होने पाती । जैसे भोजनादिमे प्रवृत्ति और जल-वनस्पति आदिका ग्रहण व्रतीके भी पाया जाता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि भी बाह्य विषयों आदिमें सावधानीपूर्वक ही प्रवृत्ति करता है । वह मिध्यादृष्टिकी तरह असावधान नहीं होता । वह अव्रती इसलिये है कि गुरुकी साक्षीपूर्वक उसने अभी व्रत स्वीकार नहीं किये है। इसे अप्रत्याख्यानावरण कषायका चमत्कार ही कहना चाहिये, जिससे उसके व्रत स्वीकार करनेके परिणाम नहीं हो पाते । पर बाह्य प्रवृत्ति उसके मिथ्यादृष्टिकी तरह अनियन्त्रित होती हो ऐसा नहीं है ।