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जेनतत्त्वमीमांसा स्वतन्त्र होनेसे अपने कर्तृत्वके अधिकारको ग्रहण किया है, (२) शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूपसे परिणमनस्वभावरूपसे प्राप्य होने के कारण जो कर्मपनेका अनुभव कर रहा है, (३) शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमन स्वभावरूपसे साधकतम होनेके कारण जो करणपनेको धारण कर रहा है, (४) शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञानरूपसे विपरिणमन स्वभावरूपसे कर्मके द्वारा समाश्रियमाण होनेके कारण जो सम्प्रदानपनेको धारण कर रहा है, (५) शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञानरूपसे विपरिणमनके समय पूर्व समयमें प्रवृत्त हुए विकल ज्ञानस्वभावका व्यय होनेपर भी सहज ज्ञानस्वभावरूपसे ध्र वपनेका अवलम्बन होनेसे जो अपादानपनेको धारण कर रहा है, (६) तथा शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञानरूपसे विपरिणमनरूप स्वभावका आधार होनेके कारण जो अधिकरणपनेको आत्मसात् कर रहा है ऐसा यह आत्मा स्वयं ही षट्कारकरूपसे उत्पन्न होता हुआ अथवा उत्पत्तिको अपेक्षा द्रव्य-भावके भेदसे भेदरूप घातिकर्मोको दूर करके स्वयं ही आवित होनेसे स्वयम्भू ऐसा निर्दिष्ट किया जाता है। इससे सिद्ध है कि निश्चयसे आत्माका परके साथ कारकपनेका सम्बन्ध नही है, जिससे कि ये जीव शुद्धात्मस्वभावको प्राप्तिके लिए बाह्य सामग्री को ढूढ़नेको व्यग्रतासे परतन्त्र होते है ॥ १६ ॥
इस उल्लेखसे जिन तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है वे इस प्रकार है
(१) प्रत्येक वस्तु षटकारकरूपसे प्रति पर्यायको उत्पत्तिके समय परिणमन करती रहती है। उसी समय वह स्वय अपने कार्यका कर्ता है, अभेद दृष्टिमें वही कर्म है, वही कारण है, वही सम्प्रदान है, वही अपादान है और वही अधिकरण है। अपेक्षाभेदका उल्लेख मूलमें किया ही है। पण्डितप्रवर आशाधरजी के जिस वचनका हम उल्लेख कर आये हैं सो उसका आशय भी यही है।
(२) आत्माका ज्ञानभावरूपसे स्वयको जानकर उसरूप परिणमन करना जहाँ स्वतन्त्र होनेका उपाय है वही स्वयंको पराश्रित रागरूप । अनुभव करते हुए उसरूप परिणमन करते रहना परतन्त्र होना है। ..इसीलिये आगममें परकी ओर झुकाववाले जितने भी परिणाम होते हैं उन्हे मोक्षमार्गमें बाधक ही कहा गया है।
(३) जिन्हे हम व्यवहार षट्कारकरूपसे स्वीकार करते हैं वे स्वरूपसे स्वयं व्यवहार षट्कारक नहीं होते, किन्तु अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर कालप्रत्यासत्तिवश हम उनमें षटकारकपनेकी कल्पना करते रहते