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। षट्कारकमीमांसा
२०५ हैं । यही पराश्रित वृत्ति है। ऐसा माननेच मध्य रेत मार- साव नों।
(४) सत्वार्षसूत्रके ५वें अध्यायमें जो उपकार प्रकरण माया है या अन्यत्र कर्मोके उदयके कारण जो जीवोंकी विविध अवस्थाएं होनेका उल्लेख किया गया है या अन्यत्र जो दूसरे प्रसंगसे निमित्त नैमित्तिक कथन दृष्टिगोचर होता है सो उसे परमार्थभूत न समझकर मात्र असदभूत व्यवहारनयसे पराश्रित कथन ही समझना चाहिये ।
शंका-मिथ्याष्टिके अज्ञानमूलक पराश्रित प्रवृत्तिको ही मुख्यता बनी रहती है ऐसी अवस्थामें वह मिथ्यात्वसे विमुख होकर सम्यग्दर्शनको उत्पन्न कर ले यह कैसे सम्भव है ?
समाधान-जैसे कोई कुलीन मनुष्य असदाचारीको अपना मित्र समझकर पहले उसकी संगति किये हुए हो बादमें उसे सच्चरित्रका सम्पर्क होनेके बाद उसके उपदेशसे अपने कुलका भान होनेपर क्रमशः या उसी समय वह असदाचारीकी संगति छोड़कर स्वयं सदाचारी बन जाता है। उसी प्रकार कोई मिथ्यादृष्टि सद्गुरुका उपदेश पढ़कर परसे भिन्न अपने आत्माको जानकर क्रमशः या तत्काल उस उपदेशको अनुस्मरणकर वह आत्मदृष्टिको प्राप्तकर सम्यग्दृष्टि बन जाता है।
शंका-यदि यह बात है तो सम्यग्दर्शनको उत्पत्तिका मुख्य कारण गुरुको मानना चाहिए ?
समाधान-गुरु सदुपदेशका निमित्त है । सम्यग्दर्शन तो उसते. स्वसन्मख होकर स्वयं ही उत्पत्र किया है। यदि गुरुके निमित्तसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति मानी जाय तो एक तो जिस जिसको सद्गुरुका उपदेश मिले वे सब सम्यग्दृष्टि हो जाने चाहिए। दूसरे वह स्वभाव , पर्याय नहीं होगी। क्योंकि जितनी भी स्वभाव पर्याय उत्पन्न होती हैं। वे परनिरपेक्ष ही होती है।
शंका-परसापेक्ष और परनिरपेक्षमें क्या अन्तर हैं ?
समाधान-जहाँ विकल्पमें परकी अपेक्षा बनी रहती है वहाँ परसापेक्ष पर्याय उत्पन्न होती है और जहाँ परकी अपेक्षारूप विकल्प छूटकर । आत्मा स्वके सन्मुख होकर तन्मय हो जाता है वहाँ स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति होती है । यही इन दोनों प्रकारकी पर्यायोंमें अन्तर है।
शंका-सम्यग्दृष्टि जीवके भी परमार्थस्वरूप देवादिके निमित्तसे