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द्रव्य का उपकार करता है, अतः कुम्भकार षटका कर्ता है इसे उपकाररूपमें यथार्थ मानने में आपत्ति ही क्या है ? '
समाधान-'प्रकृतमें उप समीपे करोति इति उपकारः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार ही 'उपकार' शब्दसे यह सूचित होता है कि मिट्रोके घटपरिणमनरूप क्रियाका कर्तृत्व कुम्भकारमें नहीं है। किन्तु जब मिट्टी घटरूपसे परिणमन करती है तब कुम्भकार बाह्य क्षेत्रादिकी अपेक्षा उसके सन्निकट रहकर अपनी हस्तादिके व्यापाररूप क्रिया करता है। यही कारण है कि कुम्भकार घट बनाता है इसे परमार्थरूप न मानकर उपचरित कथन ही कहा गया है। इसी प्रकार उपकार शब्दके अर्थमें अन्य जितने पर्याय नाम आये हैं उनका भी यही अर्थ समझना चाहिये। ___इस प्रकार व्यवहारसे कुम्भको कुम्भकारका कर्म क्यों कहा जाता है इसका विचार किया। इसी प्रकार व्यवहारनयसे करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकोंके विषयमें भी विचार कर लेना चाहिये, क्योंकि घटनिष्पत्तिके समय जो चक्र, चीवर आदिको करणसंज्ञा तथा पथिवी आदिको जो अधिकरण संज्ञा दी जाती है वह व्यवहारनयसे ही दी जाती है। बाह्य निमित्तत्व की अपेक्षा विचार किया जाय तो वे सब कुम्भकार, चक्र, चीवर और पृथिवी आदि समान हैं और इसीलिये आचार्य अकलकदेवने तत्त्वार्थ वार्तिक अ० १ सू० २० में इन सबको निमित्तमात्र कहा है । ये अनेक है। इनमेंसे किसी एकमे घटनिष्पत्तिकी अपेक्षा असद्भूत व्यवहारसे भी षट्कारकपना घटित नहीं होता। अब तो ऐसे यन्त्र भी बन रहे है जिनसे घटनिष्पत्तिके अनुकूल क्रियाकी निष्पत्ति हो सकती है। तब भी मिट्टी हो घटरूप परिणमेगो, यन्त्र नहीं । इसलिये निश्चित होता है कि घटनिष्पत्तिकी वास्तविक कारकता मिट्टी में ही घटित होती है, कुम्भकार आदि या यन्त्रादिमें नही। अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर बाह्य व्याप्तिवश कुम्भकार आदिको घटका का कहना यह केवल विकल्प हो है, परमार्थरूप नही। इसके लिये सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक अध्याय ५ के 'लोकाकाशेश्वगाहः' सूत्र पर तथा अनगारधर्मामृत अ० १, श्लोक १०४ को स्वोपज्ञ टीका पर दृष्टिपात कर वस्तुस्थितिको हृदयंगम कर लेना चाहिये । इस विषयको स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि में लिखा है__ यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधारः, आकाशस्य क आधार इति । आकाशस्य नास्त्यन्य आधारः। स्वप्रतिष्ठमाकाशम् । यखाकाशं स्व