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षट्कारकमीमांसा
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करता है' इस माम्मताको श्रुतज्ञान कहनेका ढिढोरा पीटते हुए नहीं अघाते हैं उनको वह मान्यता मिथ्या श्रुतज्ञान कैसे है यह सिद्ध होता है। ७. परमार्थको स्वीकार करनेका फल
ऐसा नियम है कि जहाँ पर आकुलता है वहीं पर परतन्त्रता है और जहाँ पर निराकुलता है वहीं पर स्वतन्त्रता है, क्योंकि बाकुलताकी परतन्त्रताके साथ और निराकुलताकी स्वतन्त्रताके साथ व्याति है । अतएव उक्त कथन के समुच्चयरूपमें यही निश्चय करना चाहिये कि जो निश्चय कथन है वह यथार्थ है, वस्तुभूत है और कर्ता, कर्म आदिकी वास्तविक स्थितिको सूचित करनेवाला है । तथा जो व्यवहार कथन है वह विवक्षित कार्यको अन्यके द्वारा बतलानेवाला होनेसे उपचरित है, अभूतार्थ है, उसे परमार्थ माननेपर वह कर्ता, कर्म आदिको वास्तविक स्थितिका अपलाप करनेवाला है । जो व्यवहाराभासी जन कर्ता कर्म आदिकी यथार्थ स्थितिका अपलाप कर व्यवहार कथनको यथार्थ मानते हैं उनकी वह श्रद्धा परावलम्बी होनेसे वे स्वरूपसे परनिरपेक्ष आत्मतत्त्वको उपलब्ध करनेमें समर्थ नहीं होते -- अतएव संसारके ही पात्र बने रहते हैं । और परमार्थको जाननेवाले जो पुरुष व्यवहारको गौणकर परमार्थस्वरूप आत्माके आश्रयसे प्रवृत्ति करते हैं वे क्रमशः मोक्षके पात्र होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीवके सविकल्प अवस्थामें प्रशस्त रागरूप व्यवहार रत्नत्रय के आश्रयसे जो प्रवृत्ति होती है उसके क्रमशः छूटते जानेका यही कारण है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवके सविकल्प अवस्था में पराश्रित व्यवहार होता तो अवश्य है पर वह उसका श्रद्धा की अपेक्षा कर्ता नहीं होता। इस अवस्थामें भी वह आत्मपरिणामका ही कर्ता होता है। इस विषय विशेष पर प्रकाश हम कर्ता-कर्म अधिकार में डाल ही आये हैं । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर आचार्यवर कुन्दकुन्दने प्रवचनसार में यह वचन कहा है
कता करण कम्म फल च अप्प ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि शेष अण्णं जदि अप्पं लहदि सुद्ध ।। १२६ ।।
जो श्रमण 'आत्मा ही कर्ता है, आत्मा ही करण है, आत्मा ही कर्म है और आत्मा ही फल (सम्प्रदान) है ऐसा निश्चयकर यदि अन्यरूप नहीं परिणमता है तो वह नियमसे शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है || १२६ ||
ऐसे निश्चयपूर्वक स्वभाव सन्मुख होनेके फलस्वरूप ही निश्चय /
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