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कर्तृ-कर्ममीमांसा यद्यपि यह बात थोड़ी विलक्षण तो लगती है कि ज्ञानी जीवके कुछ काल तक ये राग-द्वेष और नर-नारकादि पर्यायें होती रहती हैं फिर भी वह इनका कर्ता नहीं होता। परन्तु इसमें विलक्षणताकी कोई बात नहीं है । कारण कि ज्ञानी जीवका जो स्वात्मा है वह न नारको है, न तिर्यच है, न मनुष्य है और न देव है । न मार्गणास्थान है, न गुणस्थान है और न जीवस्थान है। न बालक है, न वृद्ध है और न तरुण है। न राग है, न द्वष है और न मोह है। न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है। इन सबका न कारण है, न कर्ता है, न कारयता है और न अनुमोदना करनेवाला है। वह तो कर्म, नोकर्म और विभाव भावोंसे रहित एकमात्र ज्ञायकस्वभाव है, इसलिए वह ज्ञानी अवस्थामें अपने ज्ञायकमावसे तन्मय | हुई एकमात्र शुद्धपर्यायका ही कर्ता होता है । नारक आदिरूप परास्माका/ तन्मय होकर कर्ता नहीं होता । और यह ठीक भी है, क्योंकि जिस समय जो जिस भावरूप परिणमता है वह उस समय उसका कर्ता होता है। इसी बातको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राभूतमें कहा भी है
कणयमया भावादो जायंते कुण्डलादयो भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ।।१३०॥ अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायते ।
णाणिस्स दुणाणमया सव्वे भावा तहा होति ॥१३१॥ जिस प्रकार सुवर्णमय भावसे सुवर्णमय कुण्डलादिक भाव उत्पन्न होते है और लोहमय भावसे लोहमय कटक आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अज्ञानीके बहुत प्रकारके अज्ञानमय भाव उत्पन्न होते हैं और ज्ञानी के सब भाव ज्ञानमय ही उत्पन्न होते हैं ॥१३०-१३१॥ इसी बातको स्पष्ट करते हुए वे आगे पुनः कहते हैं
ण य रायदोसमोह कुवदि गाणी कसायभावं वा ।
सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसि भावाणं ॥२८॥ ज्ञानी जीव राग, द्वेष, मोहको अथवा कषायभावको स्वयं अपने नहीं करता, इसलिए वह उन भावोंका अकर्ता है ॥ २८० ॥
इसकी टीकामें उक्त विषयका खुलासा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं- -
१. तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें रामादि भाव मेरे है ऐसा अभिप्राय नहीं रहता, इसलिए वह उन रागादि भावोंका मकर्ता है।