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षट्कारकमीमांसा
१८३ होता है कारक बही हो सकता है, अन्य नहीं। इसलिए कर्ता आदिके भेदसे कुल कारक छह ही हैं यही सिद्ध होता है। ३. सिद्धासनिर्देश __ जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुके वस्तुत्वका दो दृष्टियोंसे विचार किया गया है। प्रथम दृष्टि द्वारा प्रत्येक वस्तुकी स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा स्वतन्त्र अस्तित्वकी उद्घोषणाकर परचतुष्टयका उसमें नास्तित्व बतलाया गया है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तुका जितना भी 'स्व' है वह सब अस्तित्वमय है। उसमें परका अत्यन्ताभाव है। सजातीय या विजातीय कोई भी वस्तु अपनेसे भिन्न स्वरूपसत्ता रखनेवाली किसी भी अन्य वस्तुको सीमाको लाँधकर उसमें प्रवेश नहीं कर सकती। जैसे किसी किलेके वज्रमय कोटका भेदन करना सम्भव नहीं वैसे ही किसी भी वस्तुकी सीमाके भीतर किसी अन्य वस्तुका प्रवेश करना सम्भव नहीं है। इसी तथ्यका उद्घाटन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समयसारमें कहते है
जो जम्हि गुणे दम्वे सो अण्णम्हि ण संकमे दम्वे ।
सो अण्णमसकंतो कह तं परिणामए दव्वं ॥१०३।। जो वस्तुविशेष जिस द्रव्य या गुणमें है वह अन्य द्रव्य या गुणरूपमें संक्रमित नहीं होती। वह अन्य द्रव्य या गुणरूप सक्रमित नहीं होती हुई अन्य वस्तुविशेषको कैसे परिणमा सकती है।
इसकी आत्मख्याति व्याख्यामें आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-इस लोकमें जो जितनी कोई वस्तुविशेष जितने प्रमाणमें जिस किसी चैतन्यस्वरूप या अचैतन्यस्वरूप द्रव्य या गुणमें स्वरससे ही अनादिकालसे वर्त रही है वह 'वास्तव में अपनी अचलित वस्तस्थितिकी सीमाका भेदन करना अशक्य होने के कारण उसी द्रव्य या गणमें बर्तती रहती है. वह दूसरे द्रव्य या दूसरे गुणरूपसे संक्रमित नही होती। वह बस्तुविशेष जब कि दूसरे द्रव्य या दूसरे गुणरूपसे संक्रमित नहीं होती तो अपनेसे भिन्न दूसरी वस्तुविशेषको कैसे परिणमा सकती है, अर्थात् नहीं परिणमा सकती। अतः परभावका अन्य किसीके द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है॥१०३ ।।
उक्तप्रमाणसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं कर्ता होकर अपना कार्य करता है और करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरणपनेको भी वही प्राप्त होता है। यही कारण है कि प्रकारान्तर