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उभयनिमित्त-मीमांसा
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सब द्रव्य अपने-अपने परिणामके निश्चय उपादान कारण होते हैं, अन्य बाह्य द्रव्यको निमित्त मात्र जानो ॥ २१७॥
वस्तुतः आगममें जहाँ भी निश्चयसे कार्यकी नियामकता स्वीकार की गई है वहाँ मात्र निश्चय उपादानको ही प्रधानता दी गई है । असद्भूत व्यवहारनयसे काल प्रत्यासत्तिवश अवश्य ही निश्चयकी सिद्धिके अभिप्रायसे व्यवहार हेतुको स्थान मिला हुआ है । प्रकृतमें निश्चयकी सिद्धिका अर्थ है प्रति क्षण निश्चय उपादानके होने पर अगले ! समयमें जो कार्य हो उसको अपने अन्वयव्यतिरेकके द्वारा कालप्रत्यासत्तिवश सूचित करे । बस बाह्य कारण या असद् व्यवहार हेतुका इतना ही काम है । वह निश्चय उपादानके कार्य में दखल दे यह उसका कार्य नहीं है । हम इस तथ्यको न भूलें यही जैन दर्शनका आशय है । इससे अन्य मानना वह जैनदर्शन नही होगा । किन्तु विश्वको कर्त्तारूपसे माननेवाला ईश्वरवादी दर्शन होगा ।
६. अन्य दर्शनोंका मन्तव्य
अपने इस कथनको पुष्टिमें हम सर्व प्रथम नेयायिक दर्शनको लेते हैं । नैयायिक दर्शन कार्यकी उत्पत्ति में समवायी कारण असमवायी कारण और निमित्त कारण ये तीन कारण मानता है। जिससे समवेत होकर कार्य उत्पन्न होता है वह समवायी कारण है, संयोग आदि असमवायी कारण है । इन दोनोंसे अतिरिक्त निमित्त कारण है । नैयायिक दर्शन आरम्भवादी या असत् कार्यवादी दर्शन है । वह कारणमें कार्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करता और न ही स्वरूपसे वस्तुको द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य ही मानता है । इसलिये उस दर्शनमें निमित्त कारणपर अधिक जोर दिया गया है । यद्यपि उस दर्शन में प्र ेरक निमित्त कारण और उदासीन निमित्त कारण ऐसे भेद दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर भी वह सभी निमित्त कारणोंके मध्य कर्तारूपसे ईश्वरको सर्वोपरि मानता है । इसलिए इस दर्शनमें ईश्वरके अतिरिक्त अन्य सब उदासीन निमित्त कारण हो जाते हैं । यतः इस दर्शन में कर्ताकि लक्षणमें ज्ञान, क्रिया और चिकीर्षाको समाहित किया गया है, इसलिए जड़ और चेतन सम्बन्धी सभी कार्यो में उसकी प्रधानता हो जाती है । इस दर्शन में निमित्तोंके उक्त प्रकारसे भेद किये बिना भी उक्त प्रकारका विभाजन स्पष्ट प्रतीत होता है । संक्षेपमें यह नैयायिक दर्शनका कथन है। वैशेषिक दर्शनकी मान्यता भी इसी प्रकार की है ।