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उभयानिमित मीमांसा अपने पुरुषार्थकी हानि होती है, वास्तबमें उन्होंने इसे भीतरसे स्वीकार ही नहीं किया ऐसा कहना होगा। यह उस दीपकके समान है जो मार्गका दर्शन कराने में निमित्त तो है पर मार्ग पर स्वयं चला जाता है। इसलिए इसे स्वीकार करनेसे पुरुषार्थकी हानि होती है ऐसी खोटी श्रद्धाको छोड़कर इसके स्वीकार द्वारा मात्र ज्ञाता-दृष्टा बने रहनेके लिए सम्यक पुरुषार्थको जागृत करना चाहिए। तीर्थंकरों और ज्ञानी सन्तोंका यही उपदेश है जो हितकारी जानकर स्वीकार करने योग्य है। श्रीमद् राजचन्द्रजी कहते हैं
जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ ।
भवस्थिति आदि नाम लई छेदो नहीं आत्मार्थ ॥ जो भवस्थिति (काललब्धि) का नाम लेकर सम्यक् पुरुषार्थसे विरत हैं उन्हें ध्यानमे रखकर यह दोहा कहा गया है । इसमें बतलाया है कि यदि तूं पुरुषार्थकी इच्छा करता है तो सम्यक् पुरुषार्थ कर । केवल काललब्धिका नाम लेकर आत्माका धात मत कर।।
प्रत्येक कार्यकी काललब्धि होती है इसमें सन्देह नहीं। पर वह किसी जीवको सम्यक् पुरुषार्थ करनेसे रोकती हो ऐसा नहीं है। स्वकाललब्धि और योग्यता ये दोनों उपादानगत विशेषताके ही दूसरे नाम हैं। व्यवहारसे अवश्य ही उस द्वारा विवक्षित कार्यके निमित्तभूत नियत कालका ग्रहण होता है। इसलिए जिस समय जिस कार्यकाः सम्यक् पुरुषार्थ हुआ वही उसकी काललब्धि है, इसके सिवाय अन्य कोई काललब्धि हो ऐसा नहीं हैं। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर टोडरमल्लजी मोक्षमार्गप्रकाशक ( पृ० ४६२ ) में कहते हैं
इहाँ प्रश्न--जो मोक्षका उपाय काललब्धि आएं भवितव्यतानुसारि बने है कि मोहादिकका उपशमादि भएं बने है अथवा अपने पुरुषार्थत उद्यम किए बने सो कहो । जो पहिले दोय कारण मिले बन है तो हमकों उपदेश काहकों दीजिए है। अर पुरुषार्थते बने है तो उपदेश सर्व सुनि तिन विर्ष कोई उपाय कर सके, कोई न कर सकै सो कारण कहा ? ताका समाधान एक कार्य होने विष अनेक कारण मिलें हैं सो भोक्षका उपाय बन है । तहां तो पूर्वोक्त तीनों ही कारण मिले ही है । अर न बने है तहां तीनों ही कारण न मिले हैं। पूर्वोक्त तीन कारण कहे तिन विर्ष काललब्धि का होनहार तो किछू वस्तु नाहीं। जिस काल विष कार्य बमै सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । बहुरि कर्मका उपशमादि है सो पुदगलकी शक्ति है। ताका मात्मा का हर्ता नाहीं।