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कर्तृ-कर्ममीमांसा
कर्ता परिणामी द्रव्य कर्मरूप परिणाम । परिणति स्वयं क्रिया भली वस्तु एक त्रय नाम ।
१. उपोदघात
वस्तुस्वरूपके विचारके बाद बाह्य कारण और निश्चय उपादानका स्वतन्त्र रूपसे तथा दोनोंका एक साथ विचार किया। अब कर्तृ कर्मकी मीमांसा करनी है। उसमें यह तो स्पष्ट है कि जो भी कार्य होता है वह स्वयं कर्भ संज्ञाको प्राप्त होता है इसमे किसीको विवाद नहीं है। यदि विवाद है तो वह कर्ताके सम्बन्धमें ही है। अतएव मुख्यरूपसे इसी पर विचार करना है। 'स्वतन्त्रः कर्ता' इस नियमके अनुसार जो स्वतन्त्ररूपसे कार्य करे वह कर्ता, कर्ताका सामान्यरूपसे यह अर्थ स्पष्ट होने पर भी वस्तु स्वयं अपना कार्य करती है या अन्य वस्तु स्वतन्त्र रूपसे उस दूसरी वस्तुका कार्य कर देती है इसके सम्बन्धमें मुख्यतया विवाद बना हुआ है । अतएव इस विषयपर प्रकृतमें गहराईसे विचार कर निर्णय लेना है। इसकी मीमांसाको आगे बढानेके लिए सर्वप्रथम हम कार्यको एकान्तसे पराधीन माननेवाले नैयायिक दर्शनको लेते है। २ नैयायिक दर्शन
नैयायिक दर्शन आरम्भवादी या असत्कार्यवादी दर्शन है। प्रत्येक वस्तु कार्यका स्वयं उपादान है इस प्रकारको योग्यताको वह स्वीकार ही नहीं करता। साथ ही वह दर्शन समवाय सम्बन्धसे घटादि प्रत्येक कार्य को मिट्टी आदिस्वरूप होनेपर भी समवाय सम्बन्धवश मिट्टी आदिका कहता है । मिट्टी स्वयं घटरूप परिणमी है ऐसा वह नही मानता, इसलिए मिट्टी आदिसे समवेत होकर जो भी कार्य होता है वह अन्यके द्वारा ही किया जाता है । वह सत्ताके समवायसे जड़ और चेतन दोनोका अस्तित्व स्वीकार कर उनके जो विविध प्रकारके कार्य दृष्टिगोचर होते हैं वे स्वयं अपने परिणामस्वभावके कारण न होकर अन्यके द्वारा ही किये जाते हैं ऐसा मानता है। वह अन्य पदार्थ भी जड़ नहीं होना चाहिए। चेतन ही होना चाहिए, क्योंकि वह अज्ञानी तो हो नहीं सकता। कारण कि