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जेनतत्त्वमीमांसा बहुरि पुरुषार्थ ते उद्यम करिए है सो यह आत्माका कार्य है । तातै आत्माको पुरुषार्थ करि उद्यम करनेका उपदेश दीजिए है। तहां यह आत्मा जिस कारण ते कार्यसिद्धि अवश्य होय तिस कारणरूप उद्यम करै तहाँ तो अन्य कारण मिले ही मिल अर कार्य को भी मिति होय ही होय ।
वे आगे ( १० ४६५ ) में पन' कहते हैं
अर तत्त्व निर्णय करने विष कोई कर्मका दोष है नाही। अर तू आप तो महंत रह्यो चाहं अर अपना दोष कर्मादिककै लगावै सो जिन आज्ञा मानें तो ऐसी अनोति सभव नाही । तोको विषय-कषायरूप ही रहना है तातं झूठ बोले है । मोक्षक माची अभिलाषा होय तो ऐसी युक्ति का? को बनावै । ससारके कार्यनि विर्ष अपना पुरुषार्थत सिद्धि न होती जाने तो भी पुरुषार्थकरि उद्यम किया करै । यहा पुरुषार्थ खोई बैठे। सो जानिए है, मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहै है। याका स्वरूप पहिचानि ताको हितरूप न जाने है। हित जानि जाका उद्यम बने सो न करै वह असभव है ।
प्रकृतमें यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि शास्त्रोमें जहाँ जहाँ कालादिलब्धिका उल्लेख किया है वहाँ उसका आशय मुख्यतया आत्माभिमुख होनेके लिए ही है, अन्य कुछ आशय नही है। इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन पञ्चास्तिकाय गाथा १५०-१५१ की टीकामे कहते हैं___ यदाय जीव आगमभाषया कालादिब्धिरूपमध्यात्मभापया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूप स्वसंवेदनज्ञान लभते। ___ जब यह जीव आगमभाषाके अनुसार कालादिलब्धिरूप और अध्यात्मभाषाके अनुसार शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त होता है। १२ उपसंहार
इस प्रकार यहाँ तक जो हमने उपादानकारणके स्वरूपादिकी मीमांसाके साथ प्रसंगसे उपादानकी योग्यता और स्वकालका तथा उसका अविनाभावी व्यवहारकालका विचार किया उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कर्म निमित्त कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तोके समान कार्योत्पत्तिके समय मात्र निमित्तमात्र होते है, इसलिए जो व्यवहाराभासी लोग इस मान्यतापर बल देते हैं कि जहाँ जैसे बाह्य निमित्त मिलते हैं वहाँ उनके अनुसार ही कार्य होता है, उनकी वह मान्यता समीचीन नहीं है। किन्तु इसके स्थान में यही यह मान्यता समीचीन और