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जैनतत्त्वमीमांसा पूरे समयसार परमागममें स्वीकार किया है। समयसार गाथा ३८ में जो जीवादि नौ पदार्थोंको टकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव भावसे / अत्यन्त भिन्न कहा है वह भी इसी अभिप्रायसे कहा है, क्योंकि इनमें संज्ञाभेदके साथ लक्षणभेद और स्वभावमेद भी है। दूसरे सम्यग्दृष्टिके स्वानुभूतिके कालमें ये जीवादि नौ पदार्थ अनुभवमें नहीं आते । वर्णादिके पुद्गलद्रव्य परिणाममय होनेपर इन्हें आत्मानुभूतिसे भिन्न इसीलिये कहा है (स० सा० गा० ५०-५४ की आत्मख्याति टीका)। इसी तथ्यको आचार्यदेव इन शब्दोंमें स्वीकार करते हुए कहते हैं
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहमा बादरा य जे चेव ।
देहस्स जीवमण्णा सुने ववहारदो उत्ता ॥६७॥ पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर देहको जीवसंज्ञा परमागममे कही हैं वे व्यवहारसे कही गई है ॥६७॥
तात्पर्य यह है कि अज्ञान अवस्थामें यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन स्वभावको भूल कर परभावोंमे एकत्व और इष्टानिष्टरूप संकल्पविकल्पोंके आधीन होकर ही भावसंसारकी सष्टि करता रहता है और उसीके फलस्वरूप कर्मबन्ध कर एकेन्द्रियादि पर्यायोमें भटकता रहता है । यतः इन एकेन्द्रियादि पर्यायोकी व्याप्ति ज्ञान-दर्शन स्वभाव परिणत जीवके साथ न होकर अज्ञान और राग-द्वैषके साथ तथा कर्मोदयके साथ ही है अतः प्रकृतमें इन्हें पुद्गल द्रव्य परिणाममय कहा गया है। इन एकेन्द्रियादि पर्यायोकी व्याप्ति ज्ञान-दर्शन स्वभाव परिणत जीवके साथ नहीं है यह इसीसे स्पष्ट है कि एक तो स्वानुभूतिके कालमे किसी भी पर्यायरूपसे इनका वेदन नहीं होता। ज्ञानीके सविकल्पदशामे भी इनमे आत्मबुद्धि नही होती। दूसरे जैसे-जैसे यह जीव विज्ञानधनस्वभाव होता जाता है वैसे-वैसे पर्यायाश्रित व्यवहारका लोप होते 'जानेके साथ जिन कर्मोको निमित्त कर एकेन्द्रियादि पर्यायोंकी प्राप्ति होती है उनकी भी उत्तरोत्तर व्युच्छिति होती जाती है। इतना ही नही ज्ञानीके एकेन्द्रियादि जाति नामकों का और उनके साथ पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्मों का तो उदय होता ही नही। अर्थात् ज्ञानी जीव एकेन्द्रियसे लेकर असज्ञी पंचेन्द्रिय तक की किसी भी पर्यायरूप नही परिणमता। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त होनेपर भी उसमे स्वत्वबुद्धिसे मुक्त रहता है। यह एक रहस्य है जिसे ध्यानमे रखकर आचार्य देवने इन सब जीव विशेषाको पुद्गलमय कहा है।
शंका-उक्त कथनसे हम यह समझते है कि भावसंसारकी व्याप्ति