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कर्तृ कर्ममीमांसा जो अनुभव काल उसमें नय-प्रमाण नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव है। जैसे रत्नको खरीदने में अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहिनते हैं तब विकल्प नहीं है । पहिननेका सुख ही है । रहस्यपूर्ण चिट्ठी । ____ ज्ञानमार्गमें बंधपद्धति हेय है। ज्ञानोके तो वह ज्ञेय हो जाती है। एक शुद्धात्मा ही उपादेय है। ऐसे निर्णयपूर्वक जो शुद्धात्मामें लीनता होती है वही स्वानुभूति है। अभेद विवक्षामें सम्यग्दर्शन भी वही है। ऐसा जानी जोन भासा भी गतिमान योता।
स्वसमय और परसमयके इस स्वरूप निर्देशसे इन बातोंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है।
(१) आगममें परनिरपेक्ष और स्व-पर सापेक्षरूपसे जो दो प्रकारकी पर्यायें कही गई है उनसे हम जानते है कि जब यह जीव स्वभाव सन्मुख होकर उसमे लीनता करता है तब स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति होती है। यही परनिरपेक्ष या स्वसापेक्ष पर्याय है । इसीको स्वभाव पर्याय भी कहते है। सिद्धोंकी जो ऊर्ध्वगति स्वभाव पर्याय होती है, होती तो है वह परनिरपेक्ष ही, अन्यथा वह स्वभावपर्याय नहीं हो सकती। फिर भी आगम में जो यह कहा है कि धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे लोकानके आगे सिद्धोंका गमन नहीं होता। सो इस कथन द्वारा 'सिद्धोकी लोकाग्र तक ही ऊर्ध्वगति होती है इस तथ्यको सिद्धि की गई है। प्रत्येक कार्यके समय जितने भी व्यवहार हेतु कहे जाते हैं वे कब किस द्रव्यने क्या कार्य किया। इसकी सिद्धिके लिए ही कहे जाते हैं। सिद्धोंकी ऊर्ध्वगति स्वभाब गति है इस तथ्यका समर्थन पंचास्तिकाय गाथा ७३ की समय टीकासे भले प्रकार होता है । यथा
बद्धजीवस्य षड्गतय कर्मनिमित्ता । मुक्तस्याप्यूर्वगति का स्वभाविकीन्यत्रोक्तम् ।
बद्ध जीवकी छहों दिशाओंमें गति कर्मनिमित्तक होती है तथा मुक्त जीवकी एक ऊर्ध्वगति स्वाभाविक होती है।
यहाँ बद्ध जीवकी गतिको मात्र कर्मनिमित्तक कहा है। इस गतिमें धर्म द्रव्य भो निमित्त है यह नहीं कहा । सो क्यों ! इसका कारण है कि धर्मादिक चार द्रव्य व्यवहारसे उदासीन निमित्तरूपसे स्वीकार किये गये हैं। वे स्वभाव और विभाव दोनों प्रकारकी पर्यायोंमें स्वीकार किये गये हैं, क्योकि स्वभाव और विभाव पर्यायोंका भेद इस आधारसे नहीं किया गया है।