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जनतत्वमीमांसा जो धम्म-सुक्कझाणम्मि परिणदो सो वि अन्तरंगप्पा ।
झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणाहि ॥१५१।। जो श्रमण धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानसे परिणत है वह अन्तरात्मा है और जो श्रमण उक्त ध्यानोंसे रहित है वह बहिरात्मा है ॥१५१।।
शुक्लध्यान तो निर्विकल्प अवस्थामें ही आठवे गुणस्थानसे होता है । धर्म्यध्यान सविकल्प और निर्विकल्प दोनो प्रकारका है। सातवें गुणस्थानमें तो मात्र निर्विकल्प धर्म्यध्यान ही होता है। चौथेसे लेकर छठे गुणस्थान तक तीन गुणस्थानोम सवकिल्प धर्म्यध्यान वहलतासे होता है । यथासम्भव स्वानुभूतिके कालमें निर्विकल्प धन॑ध्यान भी होता है। जैसे आम्रवन ऐसा कहने पर यह ज्ञात होता है कि इस वनमे आम्रवृक्षोंकी बहुलता है। उसमें नीम, सीसम, आँवले आदिके वृक्ष तो हैं पर इनकी बहुलता नही है, इसीलिये इस वनको आम्रवन कहा जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें भी जानना चाहिये । अर्थात् चौथे आदि तीन गुणस्थानोंमें सविकल्प धर्म्यध्यानकी बहुलता अवश्य है पर कभी-कभी निर्विकल्प धर्म्यध्यान भी होता है। यह इसीसे स्पष्ट है कि स्वभावपर्यायकी प्राप्ति अपने ज्ञान-दर्शन स्वभावमें लीनता प्राप्त किये बिना होतो नही। इतना ही नही, सविकल्प अवस्थामें भी स्वभावकी ओर झुकाव बराबर अस्खलितरूपसे बना रहता है, अन्यथा उसे धर्म्यध्यान कहना नहीं बन सकता। इसी निर्विकल्प अवस्थाका स्वरूप निर्देश करते हुए नाटक समयसारमें कहा भी है
वस्तु विचारत ध्यावते मन पावं विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै अनुभव याको नाम । अनुभव चिन्तामणि रतन अनुभव है रसकूप ।
अनुभव माग्ग मोक्षको अनुभव मोक्षस्वरूप ।। पण्डितप्रवर टोडरमलजीने नयचक्रसे यह गाथा उद्धृत कर उसका जो अर्थ दिया है उसे यहाँ उपयोगी जान कर दे रहे हैं
तच्चाणेसणकाले समय बुझेहि जुत्तिमग्गेण ।
णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ।।२६६॥ । अर्थ-तत्त्वके अवलोकनका जो काल उसमें समय अर्थात् शुद्धात्मा को युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने । पश्चात् आराधन समय