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जैनतत्त्वमीमांसा जो विकल्प होता है उसे उसका कर्म कहा गया है। इस प्रकार इन दोनो कथनों की अपेक्षा कर्ता-कर्मके लक्षणमे जो परस्पर भेद दिखलाई देता हैं सो क्यों ? __समाधान-इन दोनों कथनोंमें पहला वस्तु स्वभावकी अपेक्षा कथन है। प्रकृतमें उसका वारण नहीं किया गया है, क्योंकि वह सभी द्रव्योंमें सर्वकाल समानरूपसे पाया जाता है। यहाँ जो कथन किया गया है वह अज्ञानी जीवकी सदाकाल अपने अज्ञान भावके कारण कैसी भूमिका | बनी रहती है यह बतलाना इसका प्रयोजन है। वह अज्ञान और रागद्वेषमूलक प्रवृत्तिको अपेक्षा पर वस्तुओंको सदा काल स्वपनेरूप और ममपनेरूप अपना ही मानता रहता है और उसका जो ज्ञान-दर्शन स्वभाव है उसको भूला रहता है । यहाँ यह कहा गया है कि जो अज्ञान मूलक परिणतिकी अपेक्षा पर वस्तुको आत्मपनेसे मानता रहेगा उसका वह अज्ञान त्रिकालमें दूर नही होगा। वह सदा काल उक्त प्रकारके विकल्पका ही अपने परिणाम स्वभावके कारण कर्ता बना रहेगा । अर्थात् ऐसे अज्ञानी जीवकी उक्त विकल्परूप कत कर्म प्रवृत्तिका पर्यवसान सदाकाल पर वस्तुओमें एकत्वपने और ममपने में ही होता रहेगा। वह मानता रहेगा
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतै न्यारी है जीव चाल । ताको न जान विपरीत मान, कर कहि देहमें निज पिछान ।।३।। मैं सुखी दुखी मै रक राव, मेरे घन ग्रह गोधन प्रभाव ।
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, वेरूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४॥ किन्तु जो ज्ञानी है, ज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूप अपने आत्मामें ही स्थित है उसके ऐसी कर्ता-कर्म प्रवृत्तिका अभाव हो जाता है।
शका--उपादान-उपादेयभाव और कर्तृ कर्मभाव ये दोनों एक है या भिन्न-भिन्न ?
समाधान-इन दोनोंमें बड़ा अन्तर है, क्योकि आगममे उपादानउपादेयभावमे एक समयका भेद स्वीकार किया गया है और कर्त-कर्मभावमे समय भेद नहीं स्वीकार किया गया है।
शंका-इन दोनोंमें एक समयका भेद होने पर भी यदि दोनोको एक द्रव्यपनेकी अपेक्षा एक माना जाय तो क्या आपत्ति है ?
समाधान–अव्यवहित पूर्व पर्यायके उत्पादके समय उसकी उपादान