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जैनतत्व-मीमांसा ११ पाँच हेतुओंका समवाय
साधारण नियम यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें ये पांच कारण नियमसे होते हैं। स्वभाव, पुरुषार्थ, काल, नियति और कर्म। यहाँ पर स्वभावसे द्रव्यकी स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। पुरुषार्थसे जीवका बल-बीर्य लिया गया है, कालसे स्वकाल और परकालका ग्रहण किया है, नियतिसे समर्थ उपादान या निश्चयकी मुख्यता दिखलाई गई है और कर्मसे बाहा निमित्तका ग्रहण किया गया है। इन्हीं पाँच कारणोंको सूचित करते हुए पंडितप्रवर बनारसीदासजी नाटकसमयसार सर्वशुद्धज्ञानाधिकारमें कहते है
पद सुभाव पूरब उदै निह उद्यम काल ।
पच्छपात मिथ्यात पथ सरवंगी शिवचाल ॥४१॥ गोम्मटसार कर्मकाण्डमें पांच प्रकारके एकान्तवादियोंका कथन आता है। उसका आशय इतना ही है कि जो इनमेंसे किसी एकसे कार्यकी उत्पत्ति मानता है वह मिथ्यादृष्टि है और जो कार्यकी उत्पत्तिमें इन पाँचोंके समवायको स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है। पण्डितप्रवर बनारसीदासजीने उक्त पद द्वारा इसी तथ्यकी पुष्टि की है। अष्टसहस्री पृ. २५७ में भट्टाकलंकदेवने एक श्लोक दिया है। उसका भी यही आशय है । श्लोक इस प्रकार है
__ तादृशी जायते बुद्धिव्यवसायश्च तादृशः ।
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ जिस जीवकी जैसी भवितव्यता ( होनहार ) होती है उसकी वैसी हो बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्ल भी उसी प्रकारका करने लगता है और उसे सहायक भी उसीके अनुसार मिल जाते हैं।
इस श्लोकमें भवितव्यताको मुख्यता दी गयी है। भवितव्यता क्या है ? जीवकी समर्थ उपादान शक्तिका नाम ही तो भवितव्यता है । भवितव्यताको व्युत्पत्ति है-भवितुं योग्यं भवितव्यम्, तस्य भावः भवितव्यता । जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता कहलाती है। जिसे हम योग्यता कहते हैं उसीका दूसरा नाम भवितव्यता है। द्रव्यकी समर्थ उपादान शक्ति कार्यरूपसे परिणत होनेके योग्य होती है इसलिए ससा मानाति विजया और
१ देखो गाथा ८७९ से ८८३ तक ।