________________
१३६
जैनसत्त्वमीमांसा
व्यवहाराभासी होकर अनन्त संसारका पात्र बना रहता है । ऐसे व्यवहाराभासीके लिए पण्डितप्रवर दौलतरामजी छहढालामें क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दों में पढ़िये:
कोटि जनम तप तपें ज्ञान बिन कर्म झरें जे। ज्ञानीके जिनमें त्रिगुप्तितें सहज टरें ते ॥ मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो । पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो ।
जैसा कि हम पहले लिख आये हैं भविव्यता उपादानकी योग्यताका ही दूसरा नाम है । प्रत्येक द्रव्यमें कार्यक्षम भवितव्यता होती है इसका समर्थन करते हुए स्वामो समन्तभद्र अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें कहते हैं:अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेय हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा | अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियार्त्तः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी ||३३|| आपने (जिनदेवने ) यह ठीक ही कहा है कि हेतुद्वयसे उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है, क्योंकि संसारी प्राणी 'मै इस कार्यको कर सकता हूँ' इस प्रकारके अहंकारसे पीड़ित है वह उस (भवितव्यता) के बिना अनेक प्रकारके अन्य कारणोंका योग मिलने पर भी कार्योंके सम्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होता ।
उपादानरूप योग्यतानुसार कार्य होता है इसका समर्थन भट्टाकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक (अ० १, सूत्र २०) मे इन शब्दोंमें करते हैं:
यथा मृदः स्वयमन्तर्घट भवनपरिणामाभिमुख्ये
दंड-चक्र-पौरुषेय प्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति, यतः सत्स्वपि दंडादिनिमित्तेषु शकरादिप्रचितो मृत्पिण्ड: स्वयमन्तर्घटभवनपरिणाम निरुत्सकत्वान्न घटीभवति, अतो मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तसापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्व भवति ।
जैसे मिट्टी के स्वयं भीतरसे घटभवनरूप परिणामके अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुषकृत प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते है, क्योकि दण्डादि निमित्तोंके रहनेपर भी बालुका बहुल मिट्टीका पिण्ड स्वयं भीतर से घटभवनरूप परिणाम ( पर्याय) से निरुत्सुक होनेके कारण घट नहीं होता, अतः बाह्यमें दण्डादि निमित्तसाक्षेप मिट्टीका पिण्ड ही भीतर घटभवनरूप परिणामका सानिध्य होनेसे घट होता है, दण्डादि वट नहीं होत, इसलिए दण्डादि निमित्तमात्र हैं ।