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उभयनिमित्त-मीमांसा
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अपेक्षा तो उसकी व्यक्ति प्रति समय होता रहती है । जिससे प्रत्येक संसारी जीवके प्रति समयसम्बन्धी भावसंसाररूप पर्यायकी सृष्टि होती हैं । यहाँ पर यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि ये दोनों शक्तियाँ जीवकी हैं तो इनमेंसे एकको व्यक्ति अनादि हो और दूसरे की व्यक्ति सादि हो इसका क्या कारण है ? समाधान यह है कि इनका स्वभाव ही ऐसा है जो तर्कका विषय नहीं है । इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिए आचार्य महाराजने पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्तिको उदाहरणरूपमें उपस्थित किया है । आशय यह है कि जिस प्रकार बही उड़द अग्निसंयोगको निमित्त कर पकता है जो पाक्यशक्तिसे युक्त होता है । जिसमें अपाक्यशक्ति पाई जाती है वह अग्निसंयोगको निमित्त कर त्रिकालमें नहीं पकता ऐसी वस्तुमर्यादा है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए । इस दृष्टान्तको उपस्थित कर आचार्य महाराज यही दिखलाना चाहते है कि प्रत्येक द्रव्यमे आन्तरिक योग्यताका सद्भाव स्वीकार किये बिना कोई भी कार्य नही हो सकता । उसमें भी जिस योग्यताका जो स्वकाल (समर्थ उपादानक्षण) है उसके प्राप्त होने पर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नही होता । इससे यदि कोई अपने पुरुषार्थकी हानि समझे सो भी बात नहीं है, क्योंकि जीवके किसी भी योग्यताको कार्यका आकार पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त होता है । जीवकी प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में पुरुषार्थ अनिवार्य है । उसकी उत्पत्तिमें एक कारण हो और अन्य कारण न हों ऐसा नहीं है । जब कार्यं उत्पन्न होता है तब अन्य निमित्त भी होता है, क्योंकि जहाँ निश्चय ( उपादान कारण) है वहाँ व्यवहार (निमित्त कारण) होता ही है । इतना अवश्य है कि मिथ्यादृष्टि जीव निश्चयको लक्ष्यमें नहीं लेता और मात्र व्यवहार पर जोर देता रहता है, इसीलिए वह
१. यहाँ पर जीवोके सम्यग्दर्शनादिरूप परिणाम शुद्धि शक्तिके अभिव्यंजक है और मिथ्यादर्शनादिरूप परिणाम अशुद्धिशक्तिके अभिव्यक है इस अभिप्रायको ध्यान में रखकर यह व्याख्यान किया है । वैसे शुद्धिशक्तिका अर्थ भव्यत्व और अशुद्धि शक्तिका अर्थ अभव्यत्व करके भी व्याख्यान किया जा सकता है । भट्ट अकलङ्कदेवने अष्टशतीमें और आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री में सर्वप्रथम इसी अर्थको ध्यान में रखकर व्याख्यान किया है । इसी अर्थको ध्यानमे रखकर आचार्य अमृतचन्द्र पञ्चास्तिकाय गाथा १२० की टीकामें यह वचन लिखा है - संसारिणी द्विप्रकारा: भour अभव्याta | से शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्तिसभावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिश्रीयन्त इति ।,