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उभयनिमित्त-मीमांसा भावना होनेसे या उसके बलसे उत्पन्न हुए निश्चय सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणामके होनेमात्रसे सम्यक् प्रकृतिके उदय रहते हए भी जीवके तन्निमित्तक किसी भी कर्मका बन्ध नहीं होता। इतना ही क्यों ? जब यह जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी क्षयोपशमलन्धि आदि रूप परिणामोंके सन्मुख होता है तब उसके भी मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यादर्शन निमित्तक बहुत सो कर्म प्रकृतियोंका क्रमसे बन्धापसरण होकर बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है और जब तक यह जीव ऐसी योग्यता सम्पन्न रहता है उनका बन्ध नहीं होता और करणलब्धिका बल पाकर मिथ्यादर्शन प्रकृतिका उदय-उदीरणा भी क्रमसे हीन बल होती हुई मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही उसका उत्तरोत्तर अत्यन्त क्षीण उदय होता जाता है। यह सब क्या है ? क्या यह अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव आत्माकी भावनाका बल नहीं है ? एकमात्र उसीका बल है जिससे यह जीव दृष्टिमुक्त हो जाता है। सातवें गुणस्थानसे लेकर आगे भी द्रव्य मोहका उदय रहते हुए भी यह जीव शुद्धात्माकी भावनाके बलसे क्रम से कर्मो की न केवल हानि करता जाता है किन्तु उसकी यथासम्भव प्रकृतियोंका क्रमसे उपशम और क्षय भी करता जाता है। इस भावनामें ऐसी कोई अपूर्व शक्ति है जिसके बलसे यह जीव क्रमसे संसारका अन्त करने में समर्थ होता है । वस्तुतः आचार्य जयसेन शुद्धात्मभावनाकी इसी सामर्थ्यको हृदयंगम कर उक्त प्रकारसे उसकी प्ररूपणा करने में समर्थ हुए।
एक बात और है जो प्रकृतमें मुख्य है। और वह यह कि स्वभाव प्राप्त जीवके जब जितनी भी विशुद्धि प्राप्त होती है वह किसी भी कर्मबन्धका हेतु नहीं है। प्रकृतमें आचार्य जयसेनने 'द्रव्यमोहादये सत्यपि' इत्यादि वचन इसी अभिप्रायको व्यक्त करनेके लिए दिया है यह तथ्य है। प्रकृतमें द्रव्यमोह पदसे सामान्य मोहनीय कर्मका ग्रहण किया है । पहले जो कुछ भी लिख आये है उसमें भी यही दृष्टि है।
इस प्रकार प्रत्येक कार्यके प्रति उपादान-उपादेय भावसे अन्ताप्तिका और निमित्त-नैमित्तिक भावसे बहियातिका समर्थन होने पर भी बहुतसे व्यवहारैकान्तवादो इन दोनोंके योगको स्वीकार न कर अपने ऐन्द्रियिक श्रुतज्ञानके बलपर वैभाविक कार्यों का अनियमसे सिद्ध होना बतलाते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायने जैसे सवस्त्र मुनिमार्गका समर्थन करनेके लिए वस्त्रको परिग्रहसे पृथक् कर दिया और उसकी पुष्टिमें स्त्रीमुक्तिको आगम कह कर स्त्रीलिंग, अन्य लिंग या गृहस्थ