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Durammausam
उभयनिमित्त-मीमांसा यः खल्धबद्धस्पृष्टस्थानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य लात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनय' । सात्वनुभूतिरात्मेत्यात्मक एव प्रद्योतते ।
परमार्थसे अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माकी जो अनुभूति होती है वह शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है। इस प्रकार एक आत्मा ही प्रकृष्टरूपसे अनुभवमें आता है।
पहले इसी शास्त्रकी छटवी गाथाकी टीकामें त्रिकाली स्वभावभूत आत्माकी व्याख्या करते हुए बतलाया है-आत्मा स्वतःसिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त है, सतत उद्योतस्वरूप है विशद ज्योति है और स्वरूपसे ज्ञायक है। इस प्रकारके आत्माकी अनुभतिको प्रकृतमें सम्यग्दर्शन कहा है। इतना ही नही, उसे आत्मा ही कहा है। ऐसा कहनेका कारण है, वह यह कि ऐसी निरन्तर भावना करनेसे करणानुयोगके अनुसार जिसके दर्शन मोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो गया है, वह श्रदामे उपचार व्यवहार और भेदव्यवहार... दोनोंसे मक्त हो जाता है। तथा उसके मख्यरूपसे उक्त प्रकारके एक आत्माकी भावनाको छोड़कर अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है। यहाँ उक्त प्रकारकी अनुभूति और आत्मामे अभेद होनेसे उक्त स्वानुभूतिको ही आत्मा कहा है यह इस कथनका तात्पर्य है । संसारी आत्मा ऐसी दृष्टि मुक्तिस्वरूप भावनाको अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानमे ही प्राप्त हो जाता है, इसीलिए आगमके रहस्यको स्वीकार करनेवाले चतुर्थ गुणस्थानसे ही निश्चय सम्यग्दर्शनको स्वीकारते हैं। यहाँ उसके होनेवाली मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप सविकल्प अवस्था को ही जिनागममें प्राक् पदवी शब्दसे सम्बोधित किया गया है । सविकल्प अवस्थामें जबतक उसकेऐसा व्यवहार बना रहता है, तबतक निश्चय सम्यग्दर्शनके साथ बने रहनेसे आत्माका पतन नहीं होता, क्योंकि ऐसे व्यवहारके विरुद्ध जब तक उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम नहीं होता तब तक वह व्यवहार, सविकल्प अवस्थामें निश्चय सम्यग्दर्शन स्वरूप आत्मशुद्धिका अविनाभावी है यह प्रकृतमें व्यवहारनयके हस्तावलम्बका तात्पर्य है। वह व्यवहारनयके विषयमें आँख मीच कर सर्वथा गड़गप्प हो जाता है ऐसा उसका तात्पर्य नहीं है।
यह तो ठीक है कि समयसार परमागममे गुणस्थान आदिके मेदसे मोक्षमार्गका स्वरूप निर्देश नहीं किया गया है। अतः उक्त तथ्यके समर्थन में हम आगमकी सप्रमाण चर्चा कर लेना आवश्यक समझते हैं इसके पहले हम सबर्सिसिद्धिको ही लेते हैं