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जनतत्त्व-मीमांसा कालादि लब्धियोंसे युक्त तथा नाना शक्तियोंसे संयुक्त पदार्थ स्वयं परिणमन करते हैं इसे कौन वारण कर सकता है ॥२१९।।
तेसु अतीदा गंता अणंतगुणिदा य भाविपज्जाया।
एक्को वि वट्टमाणो एत्तियमेतो वि सो कालो ॥२२१॥ द्रव्योंकी उन पर्यायोंमेंसे अतीत पर्यायें अनन्त है, भावी पर्याय उनसे अनन्तगुणी हैं और वर्तमान पर्याय एक है । सो जितनी ये अतीत, भावी
और वर्तमान पर्यायें है उतने ही कालके समय हैं ॥२२१॥ ___ आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी तीनों कालसम्बन्धी जितनी पर्यायें है, कालके समय भी उतने ही है । न्यूनाधिक नहीं। प्रत्येक वस्तु का यह स्वयं सिद्ध स्वभाव है कि प्रत्येक नियत समयमे नियत पर्याय ही स्वयं होती है और उस समयके व्ययके साथ उस पर्यायका भी व्यय हो जाता है । इस क्रमको कोई अन्यथा नही कर सकता।
प्रत्येक वस्तु अनेकान्तस्वरूप है इसे स्पष्ट करते हुए जिस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा वस्तुको सत्स्वरूप प्रसिद्ध किया गया है उसमें स्वकाल और कोई नहीं, यही है। ८. शंका-समाधान ___शंका-यद्यपि प्रत्येक वस्तुको प्रति समयकी पर्याय प्रत्येक वस्तुका उसी प्रकार स्वरूप है जिस प्रकार सत्त्व आदि सामान्य धर्म प्रत्येक वस्तुके स्वरूप हैं इसमें सन्देह नहीं। हमारा विवाद स्वरूपके विषयमे नहीं है, किन्तु हमारा विवाद पर्याय स्वरूपके उत्पत्तिके विषयमें है। हमारा कहना तो इतना ही है कि प्रत्येक वस्तुकी प्रति समयकी पर्यायकी उत्पत्ति परकी सहायतासे ही होती है । देखा भी जाता है कि मिट्टी घटरूप तभी परिणमती है जब उसे कुम्भकारके अमुक प्रकारके व्यापारका सहयोग मिलता है। जिनागममें बाह्य निमित्तोंकी स्वीकृतिका प्रयोजन भी यही है। अत: कार्य-कारणको मीमांसा करते समय इसका अपलाप नहीं करना चाहिए?
समाधान-प्रश्न महत्त्वका है, इस पर सांगोपाग विचार तो कोकर्म मीमांसा अधिकारमें ही करेंगे, फिर भी सामान्यसे उस पर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक प्रतीत है। प्रश्न यह है कि जो बाह्य निमित्त है वह अन्य द्रव्यके कार्य कालमें स्वयं अपनी परिणामलक्षण या उसके साथ परिस्पन्दलक्षण क्रिया करता है या अन्यकी क्रिया करता है ? यदि स्वयं अपनी ही क्रिया करता है तो अन्यके कार्यमें वह सहायक किस