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उभयनिमित्त-मीमांसा यह तीन दर्शनोंका मन्तव्य है। नैयायिक दर्शन कार्यमैं कारणकी सत्ता न माननेके कारण कार्य-कारणकी मुख्यतासे अन्य निमित्तवादी, दर्शन है । ईश्वरकी कर्ताके रूपमें स्वतन्त्र सत्ता भी उसने इसी कारण स्वीकार की है। मेघादि अजीव कार्योंका बनना-विगड़ना, वरसना, विजलीका उत्पन्न होना, चमकना आदि समस्त कार्य अन्य पुरुषकृत न होकर भी ईश्वराधिष्ठित होकर ही कार्यरूप परिणत होते हैं । ईश्वर सब कार्योंका साधारण कारण है । उसके बिना पत्ता भी नही हिल सकता।
बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी दर्शन है। यह कारणमें कार्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, इसलिये इस दर्शनमे भी स्वभावसे कार्योंकी उत्पत्ति में अन्य निमित्तोको मुख्यता मिल जाती है। क्षणिकवादी दर्शन होनेसे यह कार्योंकी उत्पत्ति अन्य निमित्त सव्यपेक्ष मान कर भी व्ययको सर्वथा निरपेक्ष मानता है। ___ एक सांख्यदर्शन ऐसा है जिसकी अन्य निमित्तवादी दर्शनोंमें परिगणना नहीं होती। कारण कि वह कारणोंके समान कार्योंकी भी सर्वथा सत्ता स्वीकार करता है। मात्र कार्यका आविर्भाव-तिरोभाव होना मानता है। ७. जैन दर्शनका मन्तव्य
यह उक्त तीन दर्शनोंके मन्तव्योंका स्पष्टीकरण है। अब इसके प्रकाशमे जैन दर्शनके मन्तव्योंपर दृष्टिपात करते है। यह न तो सर्वथा नित्यवादी दर्शन है और न सर्वथा अनित्यवादी ही। वस्तु स्वरूपसे परिणामी नित्य है यह इसका मन्तव्य है । इसलिए प्रत्येक समयमें होनेवाला परिणाम परमार्थसे परनिरपेक्ष स्वय होता है। जिस समय जो परिणाम होता है उससे पहले और बादमें द्रव्यदृष्टिसे वह सत् है और पर्याय दृष्टिसे असत् है। तथा अपने कालमें पर्याय दृष्टि से भी सत् है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पञ्चास्तिकायमे कहा भी है
देव-मनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवतित्वादुपस्थिताऽतिवाहिताहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति । गा० १८ समयव्याख्या।
देव और मनुष्यादि पर्यायें क्रमवर्ती होनेसे अपना-अपना समय प्राप्त होने और निकल जानेपर उत्पन्न होतो हैं और व्ययको प्राप्त होती है। इस विषयमे स्वामि-कार्तिकेयानुप्रक्षाका यह वचन भी दृष्टव्य है
कालाइलखिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सरकदे को वि वारेदु ॥२१९।।